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________________ अध्याय २ १४७ • माता पिता भाई आदि स्वजन तथा कलाचार्यादि के साथ तथा वन में भटक जाने पर किसी के साथ अपवाद रूप से वंदनादि व्यवहार कर सकते हैं।' अब एकादशम भावना षट्क द्वार के विषय में कहते हैं-यह सम्यक्त्व जो चारित्र धर्म का मूल है, यह द्वार तुल्य है, प्रतिष्ठान भूत है, निधिरूप है, आधारभूत है और पात्ररूप है इस प्रकार भाव रखना अर्थात् विचारना यह छः भावना कहलाती है। रे अब इनका विवेचन करते हैं यह सम्यक्त्व का मूल है, तत्त्वावबोध रूप इसके स्कन्ध है, यति .. श्रावक धर्म रूप वृक्ष है जो कि मोक्षरूपी फल को देने वाला है। धर्मनगर में प्रवेश करने के लिए यह द्वार है। व्रत रूपी पीठ पर यह प्रतिष्ठित है। मूल-गुण और उत्तरगुण रूपी अक्षय निधान यह सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व यह महाभूमि रूप आधार है। किनका ? तो कहा चारित्रप्रधान जो लोग है उनका । तथा श्रुतशील रूपी रस का यह सम्यक्त्व भाजन अर्थात् पात्र है। इस सम्यक्त्व के विषयगत यह छः भावना है। अब द्वादशवें अधिकार में छः स्थानों का वर्णन है जीवादिक पदार्थ अस्ति रूप है, नित्य है. पुण्य और पाप का . १. गुरुणो कुदिट्ठिभता, जणगाई मिच्छदिष्टिणा जे उ ।। . कंतारो ओभाई, सीयणमिह वित्तिकतारं ।। गाथा ५३ ॥ २. भाविज मूलभूयं दुवारभूयं पइट्ठनिहिभूयं ।। - आहारभायणमिमं सम्मत्तं चरणधम्मस्स । गाथा ५५ ॥ ३. देइ लहु मुक्खफलं, दसणमूले दढंमि धम्मदुमे । मुत्तुं दसणदारं न पवेसो धम्मनयरम्मि । गाथा ५६ ॥ नंदा वयपासाओ दसणपीढमि सुप्पइटुंमि । मूलुत्तरगुणरयणाण दंसणं अक्खयनिहाणं ।। गाथा ५७ ॥ . समत्तमहाधरणी आहारो चरणजीवलोगस्स । सुयसीलमणुन्नरसो दसणवरभायणे धरइ ।। गाथा ५८ ।।
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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