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________________ अध्याय २ • साधन करने में परम राग तथा जिनेन्द्र एवं गुरु की वैयावच्च का नियम ये सम्यक्त्व के तीन लिंग है ।' - अब आगे ग्रन्थकार इन तीनों लिंगों का विवेचन करते हैं कि तरुण अर्थात् युवा पुरुष सुख चाहता है, रागी प्रिय रागिनियों को सुनना चाहता है और देव गन्धर्व आदि देवों के गीतों को सुनने की इच्छा करता है उससे भी अधिक परमागम श्रवण की इच्छा सम्यग्दृष्टि की होती है । २. अब दूसरा “धर्मानुराग” नामक लिंग कहते हैं- जिस प्रकार कोई ब्राह्मण अटवी में भूख तृषा से आक्रांत होकर घृतपूरित पक्कान्न की इच्छा करता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि सदनुष्ठान में धर्मानुराग रखता है। . ३. तीसरा “ देवगरुथैयावृत्य” नामक लिंग कहते हैं- द्रव्य से और भाव से देव अर्थात् अरिहन्त भगवान् की और गुरु की शुश्रूषा आदि विविध प्रकार से यथाशक्ति पूजा करना यह वैयावृत्य लिंग है । .. अब तीसरे विनय द्वार के विषय में कहते हैं . अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, श्रुत, धर्म, साधुवर्ग, आचार्य, उपाध्याय, प्रवचन और दर्शन यह दस प्रकार का विनय है । . इसके पश्चात् दसविध विनय का विवेचन करते हैं....१. परमागमसुस्ससा, अणुराओ धम्मसाहणे परमो। .. - जिणगुरुवेयावच्चे, नियमो सम्मतलिंगाई । वहीं, गाथा १३ ॥ . २. तरूणो सुहीवियड्ढो, रागी पियपणइणी जुओ सोउ । . इच्छइ जह सुरगीयं, तोऽहिया समयसुस्मृता । वही गाथा १४ ॥ ३. कंतारुत्तिन्नदिओ घयपुण्णे भुत्तुमिच्छई छुहिओ। जह तह सदण्टाणे, अणुराओ धम्मरराओत्ति ॥ वही, गाथा १५ ॥ ४. पूयाइए जिणाणं, गुरूण विस्सामणाइए विविहे । अंगीकारो नियमो, वेयावञ्चे जहासत्ती ।। वही, गाथा १६ ॥ ५. अरहंत सिद्ध चेइय सुए य धम्मे य साहुबग्गे य । आयरिय उवज्झाए, पवयण दसणे विणओ || वही, गाथा १७ ।।
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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