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________________ १३६ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप सन्मति प्रकरण में आचार्य सिद्धसेन ने तो यह निश्चित रूप से कह दिया है कि “ज्ञान दर्शनपूर्वक है परंतु दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं। अतः निश्चय-पूर्वक यथार्थरूप से दर्शन ज्ञान से अन्य है।' . ___यहाँ दर्शन और ज्ञान में भेद दिखाकर पुनः इसे स्पष्ट करते हैं कि “ जिन कथित पदार्थों में भाव से श्रद्धा करने वाले पुरुष का. जो अभिनिबोध रूप ज्ञान उसमें दर्शन शब्द युक्त है । सम्यग्ज्ञान में नियम से सम्यग्दर्शन है परंतु दर्शन में सम्यग्ज्ञान का होना विकल्प है। इसीलिए सम्यग्ज्ञान रूप यह सम्यग्दर्शन अर्थ बल से साबित होता है। ___साथ ही यहाँ यह भी कहा गया है कि सम्यग्दर्शन एकांत दृष्टि का नाश करता है। इस प्रकार इस ग्रंथ में “ सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है इस पर विशेष बल दिया है तथा इसके हो जाने, पर एकांत दृष्टि का नाश होता है”। . इस प्रकार इस सूत्र में दर्शनमोहनीय के उपशमक की स्थिति एवं सम्यक्त्व के लक्षण का विचार किया गया है। ५. कर्म प्रकृति कर्मप्रकृति के प्रणेता शिवशर्मसूरि का समय अनुमानतः विक्रम की पाँचवी शताब्दी माना जाता है । कदाचित् ये आगमोद्धारक देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के पूर्ववर्ती अथवा समकालीन रहे हो । संभवतः ये दशपूर्वधर भी हो। इतना तो निश्चित ही है कि ये एक प्रतिभा सम्पन्न एवं बहुश्रुत विद्वान् थे। कर्मप्रकृति के अतिरिक्त प्राचीन पंचम कर्मग्रन्थ भी आपकी ही कृति मानी जाती है। कर्म प्रकृति में ४७५ गाथाएं हैं। ये अग्रायणीय नामक द्वितीय पूर्व के आधार पर संकलित की गई है। १. सन्मतिप्रकरण, द्वितीय खण्ड, गाथा २२, पृ० ४३ ॥ २. वही, गाथा ३२-३३, पृ० ४९ ॥ ३. सन्मतिप्रकरण, द्वितीय खण्ड, गाथा १६२ पृ० ९३ ॥ ४. जैन साहित्य बृहद् इतिहास, भाग ४, पृ० ११४ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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