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________________ अध्याय २ १२७ • इस प्रकार सूत्रकार ने चौदह गुणस्थानों का कथन किया जिसे टीकाकार ने स्पष्ट किया है । . अब आगे मार्गणा के एव देशरूप गति का सद्भाव बताकर उसमें जीवसमासों के अन्वेषण के लिए सूत्रकार ने कथन किया है किमिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में नारकी होते हैं । इस प्रकार यहाँ नरक गति में गुणस्थानों का कथन कर आगे कहते हैं कि मिथ्या दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्या दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इन पाँच गुणस्थानों में तिर्यञ्च होते हैं।' पश्चात् मनुष्य गति में गुणस्थानों के अन्वेषण करने के लिए. सूत्रकार कहते हैं कि. पूर्वोक्त चौदह गुणस्थानों में मनुष्य पाये जाते हैं । देवी में गुणस्थानों के अन्वेषण करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं___मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इस प्रकार देवों के चार गुणस्थान होते हैं । चारों गतियों में गुणस्थानों का निरूपण किया गया है। टीकाकार धवला टीका में उपशमन एवं क्षपण विधि का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि- उपशमन विधि में अनन्तानुवन्धी-क्रोध, मान, माया और लोभ, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व तथा मिथ्यात्व-इन सात प्रकृतियों का असंयतसम्यग्दृष्टि से अप्रमत्तसंयत्त गुणस्थान तक इन चार गुणस्थानों में रहने वाला कोई भी जीव उपशम करने वाला होता है। १. णेरड्या चउ-टाणेसु अत्थि मिच्छाइट्टी सासणसम्माइट्ठी सम्मा मिच्छाइट्टी असंजदसम्माइटित्ति । २५ | गाथा २०४ ॥ २. तिरिक्खा पंचसु टाणेसु अत्थि मिच्छाइटी सासणसम्माइट्ठी सम्मा मिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदा-संजदात्ति । सू. २६, पृ. २०७ ॥ ३. मणुस्सा चोदससु गुणटाणेसु अत्थि मिच्छाइट्टीत्ति । स २७, पृ. २१० ॥ ४. देवा चदुसुटाणेसु अत्थि मिच्छाइट्टो सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्टी असंजदसम्माइटित्ति । सू. २८, पृ० २२५ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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