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________________ १२५ अध्याय २ भी करेगा इस अपेक्षा से यह क्षायिक भी है ।' ____ अब इससे आगे के गुणस्थान के लिए सूत्रकार कहते हैं-सूक्ष्मसांपराय प्रविष्ट शुद्धि संयतों में उपशमक और क्षपक दोनों होते हैं । यहाँ सूक्ष्म कषाय को सूक्ष्मसांपराय कहते हैं, इसमें संयतों की शुद्धि भी प्रविष्ट होती है एवं उपशमक एवं क्षपक दोनों होते हैं। इस गुणस्थान में अपूर्व और अनिवृत्ति इन दोनों विशेषणों की अनुवृत्ति होती है। इस गुणस्थान में सम्यग्दर्शन की अपेक्षा क्षपक श्रेणी वाला क्षायिक भाव सहित है और उपशमश्रेणिवाला औपशमिक और क्षायिक इन दोनों ही भावों से युक्त है, क्योंकि दोनों ही सम्यक्त्वों से उपशम श्रेणी का चढना सम्भव है । अब आगे का गुणस्थान कहते हैं “सामान्य से उपशांतकषाय वीतराग छद्मस्थ जीव होते हैं।" जिनकी कषाय उपशांत हो गई हैं उन्हें उपशांत कषाय, जिनका राग नष्ट हो गया वे. वीतराग कहलाते है । तथा छद्म ज्ञानावरण और . दर्शनावरण को कहते हैं, उनमें जो रहते हैं उन्हें छद्मस्थ कहते हैं । इस प्रकार जो उपशांत होते हुए भी वीतराग छद्मस्थ होते हैं उन्हें उपशांत कषाय वीतराग छद्मस्थ कहते हैं। इससे आगे के गुणस्थानों · का निराकरण समझना चाहिये । - १. काश्चित्प्रकृतीरूपशमयति, काश्चिदुपरिष्टादुपशमयिष्यति औपश मिकोऽयं गुणः । काश्चित् प्रकृती. क्षपयति काश्चिदुपरिष्टात् क्षप. ''यिष्यतीति क्षायिकश्च । पृ० १८५-१८६ ॥ वही ॥ २. सुहुम-सांपराइय-पविटु-सुद्धि-संजदेसु अस्थि उवसमा खवा । -सू० १८ ॥ सूक्ष्मश्चासौ साम्परायश्च सूक्ष्मसांपरायः । तं प्रविष्टा शुद्धिर्येषां संयतानां ते सूक्ष्मसाम्पराय प्रविष्ट शुद्धि संयताः । तेषु सन्ति उपशमकाः क्षपकाश्च । अपूर्व इत्यनुवर्तते अनिवृत्तिरिति च । -पृ० १८७ ।। वही ॥ ३. वही, पृ० १८८ ।। ४. उवसंत-कसाय-वीयराय-छदुमत्था । सू० १९ ॥ उपशांत: कषायो येषां त उपशांतकषायाः । धीतो विनष्टो रागो येषां ते वीतरागा. ।
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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