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________________ अध्याय २. इसका समाधान करते कहते हैं कि — ऐसा नहीं है, क्योंकि सासादन गुणस्थान में विपरित अभिप्राय रहता है, इसलिए उसे असद् दृष्टि ही समझना चाहिये । ' पुनः शंकाकार शंका करते हैं कि यदि ऐसा है तो इसे मिथ्यादृष्टि ही कहना चाहिये, सासादन संज्ञा देना उचित नहीं है १२ इसका समाधान करते हुए कहा - नहीं। क्योंकि, सम्यग्दर्शन और स्वरूपाचरण चारित्र का प्रतिबंध करने वाली अनंतानुबंधी कषाय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है, इसलिए द्वितीय गुणस्थानवर्ती जीव मिथ्यादृष्टि है। किंतु मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है, इसलिए द्वितीय गुणस्थानवर्ती जीव मिथ्यादृष्टि है । किन्तु मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुए विपरीताभिनिवेश वहाँ नहीं पाया जाता है, इसलिए उसे मिध्यादृष्टि नहीं कहते हैं, सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं । " • अब तीसरे गुणस्थान का कथन करते हैं कि सामान्य से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है । " न च चतुर्थी दृष्टिरस्ति सम्यगसम्यगुभयं दृष्ट्यालम्बनवस्तुव्यतिरिक्तवस्त्वनुपलम्भात् । ततोऽसन् एष गुण इति न, विपरीताभिनिवेशतो. टित्वात । पृ० १६३-६४ ।। 7 • ततोऽसन् एवं गुण इति न विपरीताभिनिवेशतोऽसद्दष्टित्वात । । वहीं, पृ० १६४ ॥ २. तर्हि मिथ्यादृष्टिर्भवत्वयं नास्य सासादनव्यपदेश इति चेन्न । वही ॥ ३. सम्यग्दर्शनचारित्र प्रतिबन्ध्यनन्तानुबन्ध्युदयोत्पादित विपरीताभिनिवेशस्य तत्र सत्वाद्भवति मिथ्यादृष्टिरपि तु मिथ्यात्वकर्मोदयजनित विपरीताभिनिवेशाभावात् न तस्य मिथ्यादृष्टिव्यपदेश, किन्तु सासादन इति व्यपदिश्यते । वही ॥ ४. सम्मामिच्छाइट्ठी । गाथा० ११, पृ० १६६ ||
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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