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________________ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप ....... क्षयोपशम एवं उपशम सम्यक्त्व का विवेचन कर क्षायिक सम्यक्त्व का कथन करते हैं-भवभ्रमण के कारणभूत जब तीन प्रकार का दर्शनमोहनीय कर्म क्षीण हो जाता है तब जीव को विघ्नरहित तथा अतुल ऐसा क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है।' अब अन्य तीन प्रकार के जो कारकादि सम्यक्त्व है उसका.. विवेचन करते हैं शास्त्र में जिस प्रकार कहा है उसी प्रकार का अनुष्ठान जो करता है उसे कारक सम्यक्त्व जानना चाहिये और जो सिर्फ रुचि को . उत्पन्न करता है उसे रोचक सम्यक्त्व कहते हैं । २ दीपक सम्यक्त्व उसे कहते हैं जो स्वयं मिथ्यादृष्टि होता है किंतु धर्मकथा वगैरह करके अन्य का सम्यक्त्व दीपावे उसे कार्य कारणभाव से दीपक सम्यक्त्व जानना। . . इस प्रकार सम्यक्त्व के भेदों के स्वरूप का कथन करके ग्रंथकार कहते हैं कि जब सम्यक्त्व होता है तब जीव के परिणाम शुभ ही होते हैं ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि मल और दागरहित स्वर्ण क्या कृष्ण रूप में दिखाई देता है ? सम्यग्दृष्टि के परिणाम शुभ होते है तथा उसके लक्षण कैसे होते हैं ? उसकी चर्चा करते हुए कहते हैं कि- . वह जीव स्वभाव से कर्म के विपाक को अशुभ जानकर किसी १. खीणेदंसणमोहे तिविहंमि वि भवनियाणभूयंमि। निप्पच्चवायम उलं सम्मत्तं खाइयं होइ । ४८ ॥ वही २. जं जह भणियं तं तह करेइ सइ जमि कारगं तं तु । रोयगसम्मत्तं पुण रुइमित्तकरं मुणेयव्वं । ४९ ॥ वही ३. सयमिह मिच्छट्ठिी धम्मकहाईहि दीवइ परस्स। सम्मत्तमिणं दीवग कारणफलभावओ नेयं । ५० ॥ वही ४. इत्थं य परिणामो खलु जीवस्स सुहो उ होइ विन्नेओ। . किं मलकलंकमुक्कं कणगं भुवि सामलं होइ ? । ५४ ॥ वही . .
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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