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________________ पट्टण के प्रमुख नगर थे, जहाँ स्थल मार्ग से माल ले जाया जाता था । इसी प्रकार द्वीप, कानद्वीप और पुरिंम (पुरिय- जगन्नाथपुरी) ये जल पट्टण के नगर थे, जहाँ जलमार्ग से व्यापार होता था । (भरुच) और ताम्रलिप्ति (तामलुख) द्रोणमुख कहे जाते थे, जहाँ और स्थल दोनों मार्गों से व्यापार होता था । जल प्रत्येक गाँव में व्यापारी होते थे तथा माल का बेचना और खरीदना उत्पादनकर्ता और उपभोक्ता के बीच हुआ करता था । यह व्यापार अलग-अलग दुकानों या बाजार की मंडी में होता था । यदि बिक्री के बाद माल बच जाता, तो वह देश के अन्य व्यापारिक केन्द्रों में भेज दिया जाता था । 1 वणिक आयात-निर्यात भी करते थे । कौन-सी वस्तुएँ बाहर भेजी जाती थी और कौन-सी बाहर से आती थी तथा कौन-सी वस्तुओं का अन्तर्देशीय विनिमय होता था । इन सब बातों का तो ठीक-ठीक पता नहीं लगता, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि बहुत-सी वस्तुओं का विनिमय होता था । व्यापारी अपने यहाँ होने वाली वस्तुओं को गाड़ी, नाव, जहाज आदि से भरकर दूर-दूर के देशों में ले जाते थे और बदले में वहाँ से दूसरी वस्तुएँ लेकर आते थे । ज्ञाता धर्मकथा के उल्लेख से ज्ञात होता है कि जब व्यापारी समूह के साथ व्यापार करने निकलते थे, तब अपने साथ खाने-पीने की वस्तुएँ, औषधि, अस्त्र-शस्त्र आदि की व्यवस्था करके चलते थे । अपने यहाँ जो वस्तुएँ होती थी, उन्हें लेकर जाते थे। विदेशों से माल लाने वाले व्यापारी राज कर से बचने के लिए छलकपट करने से नहीं चूकते थे । राजप्रश्नीय में उल्लेख है कि अंकरन, शंख और हाथी दाँत के व्यापारी टैक्स से बचने के लिए सीधे मार्गों से यात्रा न कर दुर्गम मार्ग से घूम-घूमकर इच्छित स्थान पर पहुँचते थे । वस्तुओं की पूर्ति निश्चित नहीं थी । यातायात के बंद होने से उत्पादन पर एक ही व्यक्ति का अधिकार होने से और उत्पादन साधनों के बहुत पुराने होने से माल की पूर्ति जल्दी नहीं होती थी । लेने-बेचने में मिलावट (प्रतिरूपक व्यवहार) और बेईमानी चलती थी । - मायावी व्यापारी सीधे-सादे ग्राहकों को ठग लेते थे । 1 परदेश यात्रा के लिए राजा की आज्ञा (रायवर सासण- पासपोर्ट) प्राप्त करना जरूरी था । व्यापारी सुबह का नाश्ता (पायरासेहि) करके मार्गों में ठहरते हुए यात्रा करते थे । इष्ट स्थान परं पहुँच जाने पर वे उपहार आदि लेकर राजा की सेवा में उपस्थित होते थे । राजा उनका कर माफ कर देता और उनके ठहरने की उचित व्यवस्था भी करता था । (२१३)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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