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________________ (पालथादि से विपरीत सुसाधु) १. गच्छवासी, र. ज्ञानादि युक्त, ३. गुरु परतंत्र, ४. 'अनियत' =मासकल्पादि मर्यादा युक्त विचरने वाले ५. 'गुणेसु प्रतिदिनं की क्रिया में अप्रमादी। इन पदो के संयोग से (पूर्व गाथा के जैसे (५-१०-१०-५-१) भांगे संयम आराधकों (तीर्थंकर गणधरादि) ने कहे है। इनमें जैसे-जैसे पदवृद्धि हो वैसे गुणवृद्धि समझना ||३८८।। निम्ममा निरहंकारा, उवस्ता नाणदंसणचरिते । एगखित्तेऽवि ठिआ, खवंति पोराणयं कम ॥३८९॥ (आर्य समुद्रसूरिजी आदि महामुनियों ने स्थिरवास किया परंतु वे जिनाज्ञा पालक होने से आराधक थे क्योंकि) जो ममत्व बुद्धि से रहित हो, अहंकार रहित हो, ज्ञान-दर्शन-चारित्र में दत्तचित्त हो, फिर वे एक ही क्षेत्र में क्षीण जंघा-बल आदि पुष्ट कारण से स्थिर वास करे तो भी पूर्व संचित कर्मों को खपाते हैं ।।३८९।। जियकोहमाणमाया, जियलोहपरीसहा य जे धीरा । वुड्डायासेऽवि ठिया, खवंति चिरसंचि कामं ॥३९०॥ जिन्होंने क्रोध, मान माया का निग्रहकर उनको जीत लिये हैं, जिन्होंने लोभ और परीसहों को जीत लिये हैं, वे धीर-सत्त्ववान (मुनि-पूर्व में कहा उस प्रकार) वृद्धावस्था में स्थिरवास में रहते हुए चिर संचित कर्म समूह का नाशं करते हैं ।।३९०।। . . पंचसमिया तिगुता, उज्जुत्ता संजो तवे चरणे । . वाससयं पि वसंता, मुणिणो आणहगा भणिया ॥३९१॥ .. पाँच समिति से समित (सम्यक् प्रवृत्तिवाले) और तीन गुप्ति से (मन-वचन-काया से सत्प्रवृत्ति असत् निवृत्ति) गुप्त (सुरक्षित) और (१७ प्रकार से संयम बारह भेदे तप और दश भेदे यति धर्म सहित साध्वाचाररूप चरणं में उद्युक्त मुनिा जन को एकसो वर्ष तक भी एक क्षेत्र में रहना पड़े तो भी उनको तीर्थंकरादि ने आराधक कहे हैं ॥३९१।।। तम्हा सवाणुन्ना, सब्बनिसेहो य पवयणे नत्यि । - आयं वयं तुलिज्जा, लाहाकखि ब्व वाणियओ ॥३९२॥ इस कारण जिनागम में (सभी कर्तव्यों के लिए यह करना ही ऐसी एकांते अनुज्ञा नहीं है) और (नहीं ज करना) ऐसा सर्वथा निषेध भी नहीं है। (कारण कि आगम में सभी कर्तव्य-अकर्तव्य के विषय में द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव की अपेक्षा से विधान-निषेध है। उससे कभी विचित्र द्रव्य-क्षेत्रादि की श्री उपदेशमाला 81
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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