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________________ जड़ ता तिलोअनाहो, विसहइ बहुआई असरिसजणस्स । इयं जीयंतकराई, एस खमा सव्वसाहूणं ॥४॥ त्रिलोक के नाथ श्री वीर प्रभु ने निम्न से निम्न व्यक्तियों के द्वारा . मारणांतिक उपसर्ग अगर सहन किये हैं तो उनकी परंपरा के सभी साधु साध्वीयों को तो ऐसी क्षमा धारण करनी ही चाहिए ।।४।। साधु का मूलभूत विशेषण 'क्षमाश्रमण' है। क्षमा के लिए श्रम करनेवाला साधु। अतः साधु के जीवन में क्षमा का तत्त्व अस्थि मज्जा तक समाया हुआ होना चाहिए। 'असरिसजणस्स' शब्द का प्रयोगकर कहा है कि सर्वोत्कृष्ट शक्ति संपन्न वीर विभु ने ऐसे-वैसे व्यक्ति के द्वारा कृत उपसर्ग सहन किये हैं तो साधु को कोई कुछ भी कह दे तो उसे सहन करना उसका परम कर्तव्य होना चाहिए। ___ वर्तमान के साधु-साध्वीयों को गृहस्थों के द्वारा, श्रावकों के द्वारा किसी भी प्रकार के उपसर्गो का लगभग कोई प्रसंग ही नहीं आता। परंतु साधु-साध्वीयों को आपस में ही सहयोगियों से कभी-कभी शब्दादि सुनायी देते हैं तो उस समय 'समणोऽहं' सूत्र को याद कर लिया जाय तो क्षमा भाव सहज सुलभ आ जाता है। - वैसे ही श्रावक-श्राविकाओं को भी वीर विभु की संतान के नाते क्षमा भाव को धारण करना चाहिए। न चइज्जड़ चालेउ, महइ महावद्धमाणजिणचंदो । .. उवसग्गसहस्सेहिं वि, मेरु जहा वायंगुंजाहिं ॥५॥ देवता ने परीक्षा कर दिया हुआ वीर नाम धारण करने वाले वीर विभु को हजारों प्रकार के उपसर्गों द्वारा चलायमान नहीं कर सके। चलायमान होंगे भी कैसे? क्या प्रबलवायु मेरुपर्वत को चलायमान कर सकता है? नहीं, वैसे ही भगवंत को भी कोई ध्यान से चलायमान नहीं कर सका ।।५।। भद्दो विणीयविणओ, पढमगणहरो समतसुअनाणी । जाणतो वि तमत्थं, विम्हियहियओ सुणइ सव्वं ॥६॥ कल्याण करने वाले, मंगलरूप, विनय से विनीत और संपूर्ण श्रुतज्ञानी प्रथम गणधर श्री गौतम स्वामी संपूर्ण श्रुत को जानते हुए भी रोमांचित होकर आश्चर्य पूर्ण हृदय से विकसीत नयनवाले होकर जिन वाणी का श्रवण करते थे ।।६।। इस दृष्टांत से यह सूचित किया कि सद्गुरु भगवंत द्वारा दी जानेवाली श्री उपदेशमाला
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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