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________________ (अब मान-) मान यह जात्यादि मद, अहंकार, दूसरों का अवर्णवाद, स्व प्रशंसां, दूसरों का पराभव और परनिंदा और असहिष्णुता स्वरूप है ।।३०४।। , हीला निरुवयारित्तणं, निरवणामया अविणओ अ । परगुणपच्छायणया, जीवं पाडंति संसारे ॥३०५॥ इसके अलावा भी दूसरों को अयोग्य दर्शाना, किसी पर उपकार न करना, अक्कडता-अनम्रता, अविनय, दूसरों के गुणों को छूपाना, ये सभी मान के पर्याय है। ये जीव को संसार में भ्रमण करवाते हैं ।।३०५।। माया कुडंग पच्छण्ण-पावया, कूडक्वडवंचणया । सव्वत्थ असब्भावो, परनिक्वेवावहारो व ३०६॥ अब माया यह कुडंग-वक्रता, पाप के गुप्त आचरण, कूड़, कपट, ठगना, सभी पर असद्भाव (शंका-अविश्वास) करना। दूसरों की थापण छूपाना, न देना ये सभी माया के रूपांतर है ।।३०६।। छलछोमसंवइयरो, गूढायारत्तणं मई कुडिला । यीसंभघायणं पि य, भवकोडिसएसु वि नडेंति ॥३०७॥ छल-दिखाना अलग, वर्तन अलग, छद्म-खोटा बहाना (अपने स्वार्थ के लिए पागल बनना), गूढ़ दूसरों को अपने हृदय की बात का अंदाज न आंने देना ऐसा आचरण, वक्र बुद्धि, विश्वासघात ये सभी माया के रूपांतर है और ये मायावी को कोटाकोटी भवों तक संसार में भ्रमण करवाते हैं ।।३०७।। लोभो अइसंचयसीलया य, किलिठ्ठत्तणं अइममत्तं । ... कप्पण्णमपरिभोगो, नट्ठविणिढे य आगल्लं ॥३०८॥ —- (लोभ-) लोभ-अति संचय शीलता (इकट्ठा करने का स्वभाव) संक्लिष्ट चित्त, अति ममता, कल्प्यान्नअपरिभोग-खाने योग्य सामग्री पास में होने पर भी उस पर तृष्णा के कारण वह नहीं खाता ऐसी कृपणता। पदार्थ गुम हो जाने पर या नष्ट होने पर (अत्यंत मूर्छा के कारण रोग हो जाने से) अतीव आकुल-व्याकुलता स्वरूपी बेचेनी का होना ।।३०८।।... मुच्छा अइबहुधणलोभया य, तब्भावभावणा य सया । ..बोलंति महाघोरे, जमरणमहासमुदंमि ॥३०९॥ मर्छा अर्थात् धन की अतीव लोभी दशा और सतत लोभ भावना चित्त लोभ में ही रमण करे, (लोभ के ये अति संग्रहशीलतादि स्वरूप) जरामरण रूप महाभयंकर अपार संसार समुद्र में डुबा देता है ।।३०९।। श्री उपदेशमाला - 63
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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