SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ युवावासे वि ठियं, अहव गिलाणं गुरुं परिभवंति । दत्तुब्ब धम्मवीमंसएण, दुस्सिक्खियं तं पि ॥१९॥ दत्तमुनि के समान मंद बुद्धि मुनि धर्म के कुविकल्प से (मैं धर्म में . दोष सेवन नहीं करता गुरु करतें हैं ऐसे कुविचार से) जंघाबल क्षीण होने से स्थिरवास में रहे हुए ग्लान गुरु के छिद्र ढूंढकर उनका पराभव तिरस्कार करता है (वह केवल उद्धताइ से ही नहीं परंतु अपने को व्यवस्थित मानता हो तो भी) उसकी वह शिक्षा दुष्ट है (क्योंकि दुर्गति का कारण है) ।।९९।। आयरिय-भतिरागो, कस्स सुनक्खत्तमहरिसीसरिसो? . अवि जीवियं ववसियं, न चेव गुरुपरिभवो संहिओ॥१०॥ (स्वयं तो गुरु का पराभव न करे परंतु दूसरे के द्वारा किये जाते पराभव को भी सहन न करने वाले) आर्य सुनक्षत्र महर्षि के जैसा गुरु प्रति भक्ति राग दूसरा किसका ढूंढे कि जिस राग में स्वयं के जीवन को भी खत्म होने दिया। परंतु गुरु के तिरस्कार को सहन न किया। (गोशाले ने भगवंत को कहे हुए अप शब्द उन्होंने सहन नहीं किये) ।।१०।। पुण्णेहिं चोड़या पुरक्खडेहिं, सिरिभायणं भविअसत्ता । गुरुमागमेसिभद्दा, देवयमिय पज्जुवासंति. ॥१०१॥ जो आत्मा गुरु की देवाधिदेव के समान सेवा भक्ति करता है वह भव्य जीव वास्तव में पूर्वकृत पुण्यानुबंधी पुण्य से प्रेरित है और उससे वह ज्ञानादि संपत्ति का स्वामी बनकर भविष्य में कल्याणकारी स्थान को पाता है ।।१०१।। बहु-सुक्खसयसहस्साण-दायगा, मोअगा दुहसयाणं । आयरिया फुडमेएं, केसिपएसी व ते हेऊ ॥१०२॥ धर्मगुरु शिष्य को अनेक प्रकार के लाखों प्रकार के सुख को देनेवाले और शताधिक दुःखों से बचाने वाले होते हैं। यह केशी राजा और प्रदेशी राजा के दृष्टांत से स्पष्ट है। इस कारण हे शिष्य तूं सद्गुरु की उपासना कर ।।१०२।। नरयगडगमणपडिहत्थाए कए तह पएसिणा रण्णा । अमरविमाणं पत्तं, तं आयरियप्पभावेणं ॥१०३॥ जिस प्रकार नरकगति गमन में 'पडिहत्था'=भारी कर्म बंधे हुए होने पर भी प्रदेशी राजा के द्वारा देव विमान प्राप्त किया गया यह धर्माचार्य के प्रभाव से ही बना ।।१०३।। श्री उपदेशमाला 22
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy