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________________ सहन करने का ही रखते हैं (आपत्ति में भी धर्म न छोड़ना) ।।४२।। जिणवयणसुइसकण्णा, अवगयसंसारघोरपेयाला । बालाणं खमंति जई, जइत्ति किं इत्थ अच्छेरं? ॥४३॥ जिन वचन में श्रोतेन्द्रिय का उपयोग करने में जागृत और संसार की भयंकरता का विचार करने वाले साधु बालिश जन बालबुद्धि वाले दुष्ट जनों के वर्तन को सहन करे इसमें क्या आश्चर्य? ।।४३।। न कुलं एत्थ पहाणं, हरिएसबलस्स किं कुलं आसी? । आकपिया तवेणं, सुरा वि जं पज्जुवासंति ॥४४॥ धर्म कुलवान ही कर सकता है? ऐसी बात नहीं है। हरिकेश महामुनि को ऊँच कूल कहाँ था? फिर भी उनके तप से आकर्षित बनें देव भी उनकी सेवा में उपस्थित रहकर सेवा करते थे ।।४४।। देवो नेरइओत्ति य, कीडपयंगु ति माणुसो एसो । रुवस्सी य. विरुयो, सुहभागी दुखभागी य ॥४५॥ संसार में परिभ्रमण विकासवाद पर निर्भर नहीं है। किंतु जीव देव होता है, नारकी बनता है, कीट पतंगिया आदि तिर्यंच में भी उत्पन्न होता है। वही आत्मा मनुष्य भी होता है, स्वरूपवान् कुरूप भी होता है सुखभागी एवं दुःख भागी भी होता है ।।४५।। ... राउ ति य दमगुत्ति.य, एस सपागुत्ति एस वेयविऊ । . सामी दासो पुज्जो, खलो ति अधणो धणयइ ति॥४६॥ . राजा. भी भिक्षुक बनता है, वही चंडाल बनता है तो वेदज्ञ ब्राह्मण भी होता है, स्वामी बनता है, दास भी बनता है, पूज्य बनता है, दुर्जन भी बनता है, निर्धन बनता है तो धनवान भी बनता है ।।४६।। न वि इत्थ को वि नियमो, सकम्मविणिविट्ठसरिसकयचिट्ठो। .. अन्नुन्न रूबवेसो, नडु ब्व परियत्तए जीवो ॥४७॥ . यहाँ कोई ऐसा नियम नहीं (कि पशु पशु और मानव मानव ही बनें) किन्तु स्व-स्वकर्मानुसार प्रकृति स्थिति आदि के उदयानुसार वर्तन करता हुआ संसार में नट सद्दश अन्यान्य वेश करता हुआ जीव भ्रमण करता है। (अतः संसार का स्वरूप विचारकर विवेकी आत्मा मोक्ष रसिक बनता है, धन रसिक नहीं) ।।४७।। ... कोडीसएहिं धणसंचयस्स, गुणसुभरियाए कन्नाए । नवि लुतो वयररिसी, अलोभया एस साहूणं ॥४८॥ श्री उपदेशमाला - 11
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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