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________________ उवएसमालमेयं, जो पढइ सुणइ कुणइ वा हियए । सो जाणइ अप्पहियं, नाऊण सुहं समायरइ ॥५३६॥ यह उपदेश माला जो धन्य पुरुष पढ़ता है, सूत्र से बोलता है, अर्थ से सुनता है और हृदयस्थ प्रतिक्षण इसके पदार्थ को दिल में भावित करता है: वह इस लोक परलोक के स्वयं के हित को समझाता है और इसे समझकर 'सुहं' =बिना मुश्किल से सुख पूर्वक आचरता है ।।५३६ ।। धंतमणिदामससिगयणिहिपयपढमक्खराभिहाणेणं । उवएसमालपगरणमिणमो रइअं हिअट्ठाए ॥५३७॥ - धंत-मणि-दाम-ससि-गय-णिहि इन छ पदों के प्रथमाक्षर से बनने वाले (धर्मदास गणि) ने 'हियट्ठाए' =मोक्ष के लिए और जीवों के उपकार के लिए इस उपदेश माला नामक प्रकरण शास्त्र रचा-जिनागम में से अर्थ से उद्धरकर सूत्र बद्ध किया ।।५३७।। जिणवयणकप्पक्खो, अणेगसत्थत्थसाल विच्छिन्नो । . तवनियमकुसुमगुच्छो, सुग्गइ फलबंधणो जयइ ॥५३८॥ द्वादशांगी रूप जिन वचन जिनागम यह कल्पवृक्ष है। क्योंकि-इष्ट फलदाता है। यह व्यापक होकर सम्यक् छाया देनेवाला होने से अनेक सूत्र शास्त्र और तदर्थ रूपी शाखाओं से विस्तार वाला है। इसमें मुनि-मधुकर को प्रमोदकारी तप नियम रूपी पुष्पों के गुच्छे हैं। और यह स्वर्ग मोक्ष रूपी अनंत सुख रस भरे हुए फल की निष्पत्ति युक्त है। यह जिनागम-कल्पवृक्ष मिथ्याशास्त्र रूपी वृक्षों को अकिंचित्कर करने से जयवंत वर्तता है ।।५३८।। जुग्गा सुसाहुवेरग्गिआण, परलोगपट्ठिआणं च । ... संविग्गपखिआणं, दायव्या बहुसुआणं च ॥५३९॥ सुसाधु और वैरागी श्रावकं और संयम सन्मुख होने से परलोक में हित की प्रवृत्ति में उद्यत संविग्न पाक्षिक को यह उपदेश माला देने योग्य है और ऐसे विवेकी बहुश्रुत को देनी ।।५३९।। इय धम्मदासगणिणा, जिणवयणुवएसकज्जमालाए । मालव्य विविहकुसुमा, कहिआ य सुसीसवग्गस्स ॥५४०॥ जिनवचन के उपदेश का कार्य आगमों की माला में से धर्मदास गणि ने विविध पुष्पों वाली माला के समान इस प्रकार गूंथकर विविध उपदेश वाली यह उपदेश माला उत्तम शिष्य वर्ग को कही ।।५४०।। 1 पढमक्खराणनामेणं श्री उपदेशमाला 118
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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