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________________ कथन द्वारा अनेक बार समझाने पर भी वेश के गाढ़ अनुराग से वेश को न छोड़ने वाला और कुछ कोमल भाव वाला होने से वेश न छोड़े तो उसे समझावे कि तूं संविग्न पाक्षिकपना पालन कर जिससे चारित्र धर्म का बीजाधान रहने से भवांतर में तूं इस संविग्न पाक्षिकपने से मोक्ष मार्ग पा सकेगा ।।५२२।। कंताररोहमद्धाण-ओमगेलन्नमाइकज्जेसु । . सव्वायरेण जयणाइ, कुणइ जं साहुकरणिज्जं ॥५२३॥ इन संविग्न पाक्षिकों का उपयोग क्या? तो कहा कि-बड़ा अरण्यलंघन, रोह-पर सैन्य का घेराव, (भिक्षा से दुर्लभ) अद्धाण-विहार मार्ग, अवम-दुष्काल, बिमारी, राजा का उपद्रव आदि कार्यों में सर्व शक्ति से यतना से प्रवर्तन करना जिससे मन में खेद-वैमनस्यपना न हो इसमें संविग्न पाक्षिक आत्मा जो शोभनीय करणीय हो या तपस्वी का कार्य हो वह करें ।।५२३।। आयरतरसंमाणं सुदुक्कर, माणसंकडे लोए । संविग्गपक्खियत्तं, ओसन्नेणं फुडं काउं ॥५२४॥ 'माणसंकडे' =गर्व से तुच्छ मनवाले स्वाभिमान ग्रस्त लोक के बीच शिथिलाचारी को अतिशय प्रयत्न से छोटे भी सुसाधुओं को वंदनादि सन्मान करने रूप संविग्न पाक्षिकपना प्रकट रूप में आचरण में लेना या स्पष्ट निष्कपट भाव से बहाने बनाये बिना वैसा आचरण करना अत्यंत दुष्कर है ||५२४।। सारणचइआ जे गच्छ-निग्गया, पविहरंति पासत्था । जिणययणबाहिरा वि य, ते उ पमाणं न कायव्या ॥५२५॥ १. अधिक विशेष समय तक संविग्न रहकर फिर शिथिल हो वह पूर्वोक्त तीन में से कौन सी कक्षा में? अथवा २. प्रमादी और गीतार्थ की सारणा वारणा के समय जो ऐसा कहे कि 'यह तो हमसे बड़ों से भी आचरित है? तो ऐसे कौन सी कक्षा में? तो कहा कि-जो सारणादि त्रसीत होकर उन्हें छोड़कर सद्गुरु संचालित साधु गच्छ में से नीकलकर यथेष्ट प्रवृत्ति से विचरते हो तो वे भी जिनाज्ञा बाह्य है। जिनाज्ञा के मात्र पास में रहनेवाले किन्तु आचरण करने वाले नहीं अतः पासत्था है। इनको "प्रमाण न कर्तव्याः' सुसाधु के रूप में नहीं माननें। माने तो अर्थापत्ति से भगवान को अप्रमाण माना गिना जाता है। संविग्नता जन्म सिद्ध परवाना नहीं है। किन्तु संपूर्ण साधु धर्म और गृहस्थ धर्म को वर्तमान काल में पालन करने वाले वे संविग्न साधु और सुश्रावक है। ऐसा कहने से मार्ग बहार प्रवृत्ति करते हुए भी मन से श्री उपदेशमाला 114
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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