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________________ 'सुबहु'=अनेकानेक प्रकार से पासत्थे लोगों को देखकर मध्यस्थ नहीं बनता (मौन रखने का नहीं करता, जिससे रागद्वेष में आ जाने के द्वारा जो स्वयं की साधना को अच्छी प्रकार नहीं साधता वह स्वयं के आत्मा को कौए जैसा बनाता है। क्योंकि मौन न धरकर दूसरे साधु श्रावकों के दोष बोलने से वे सब इकट्ठे होकर लोगों में स्वयं को गुणवान हंस जैसे और इसे दोष बोलने वाले को कौए जैसा बतावें ऐसा बनें ।।५१०।। परिचिंतिऊण निउणं, जड़ नियमभरो न तीरए योढुं । - परचित्तरंजणेणं न वेसमित्तेण साहारो ॥५११॥ 'निपुण' =सूक्ष्म बुद्धि से पूर्ण विचारकर जो जीवन पर्यंत मूल-उत्तर गुण रूप नियमों का समूह वहन करना शक्य न हो तो 'परचित्तरंजणेण' (यह भी साधु महाराज है ऐसी दूसरों में आदर बुद्धि कराने वाले वेश मात्र से आत्मा को रक्षण नहीं मिलता। तात्पर्य-वेशधारी गुण रहित लोगों को मिथ्यात्व प्राप्ति का कारण बनने से अतिगाढ अपरिमित संसार वृद्धि करता है। इस कारण ऐसा साधुओं का वेश त्याग श्रेयस्कर है ।।५११।।। निच्छयनयस्स चरणस्सुवघाए, नाणदंसणवहोऽवि। . यवहारस्स उ चरणे हयम्मि, भयणा उ सेसाणं ॥५१२॥ संयमनाश होने पर भी ज्ञान दर्शन तो है ही। तो फिर वह एकांते निर्गुणी नहीं। फिर ऐसे का वेश त्याज्य क्यों? तो कहा कि-'निश्चयनयस्स' निश्चयनय की अर्थात् आंतर तत्त्व निरूपण की दृष्टि से ऐसा कहा जाता है कि चारित्र का नाश होने पर ज्ञान-दर्शन का भी नाश होता है। ज्ञान दर्शन ये दोनों चारित्र के साधक होने से ही वास्तविक ज्ञान दर्शन रूप बनते हैं। 'व्यवहारस्य' =व्यवहारनय की दृष्टि से अर्थात्-बाह्यतत्त्व निरूपण की दृष्टि से चारित्र नष्ट होने पर दूसरे दो की भजना (अर्थात् एकांत नहीं की दोनों नष्ट हो ही जाय। चारित्र का कारण ज्ञान दर्शन है। चारित्र यह कार्य है। चारित्र के अभाव में ये दो हो और न भी हो। कारण होने पर कार्य हो ही ऐसा नियम नहीं है दृष्टान्तरूप में अग्नि होने पर धूआँ हो और न भी हो जैसे अग्निमय लोहे के सलिये में पाइप में धूआँ नहीं होता ।।५१२।। ... सुज्झइ जई सुचरणो, सुज्झइ सुस्सावओऽवि गुणकलिओ। - ओसन्नचरणकरणो सुज्झइ संविग्गपक्वरुई ॥५१३॥ - साधु-श्रावक मार्ग के समान तीसरा संविग्न पाक्षिक मार्ग भी कार्य साधक है वो बताते हैं-द्रढ़ चारित्रवान मुनि सर्वकर्ममल धोने के द्वारा निर्मल 111 श्री उपदेशमाला
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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