SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न तहिं दिवसा पक्खा, मासा वरिसा वि संगणिज्जंति। जे मूलउत्तरगुणा, अक्खलिया ते गणिज्जति ॥४७९॥ चाहे सातिचार परंतु मेरा लंबा दीर्घ चारित्र पर्याय होने से इष्टसिद्धि होगी-ऐसा नहीं मानना, क्योंकि तहिं-धर्म के विचार में और इष्टसिद्धि में जो दिन, पक्ष, मास और वर्ष भी केवल अच्छी संख्या में व्यतीत हो उतने मात्र से वे गीनती में नहीं आते किन्तु अस्खलित निरतिचार मूलगुण उत्तर गुण की आराधना युक्त व्यतीत हो वे ही गिनती में आते हैं क्योंकि वे ही इष्ट साधक है मात्र चिर दीक्षितता नहीं किन्तु निरतिचारता इष्ट साधक बनती है और वह अत्यंत अप्रमादी को होती है क्योंकि- ।।४७९।। जो नवि दिणे दिणे संकलेइ, के अज्ज अज्जिया मि गुणा?] अगुणेसु अन हु खलिओ, कह सो उ करेइ अप्पहियं? ॥४८०॥ जो दिन-प्रतिदिन और पण शब्द से रात को भी संकलना नहीं करता (सम्यग् बुद्धि से तपासकर.अंदाज नहीं निकालता) कि आज कौन से ज्ञानादि गुण मैंने अर्जित किये? और कौन से दोषों में (मिथ्यात्वादि) स्खलित पतित न हुआ? कितने अतिचार से बचा? वह आत्मा स्वात्महित क्या साधेगा? (क्योंकि संकलना-विचारणा नहीं करनेवाला सुसंस्कार शून्य है। साधना के विचारों से सुसंस्कार उत्पन्न होते है, वृद्धि को पाते हैं ।।४८०।। इय गणियं इय तुलिअं, इय. बहुहा दरिसियं नियमियं च । जह तह वि न पडिबुज्झइ, किं कीरइ? नूण भवियव्यं ॥४८१॥ . इस प्रकार (संवच्छरमुसभजिणो' गाथा से भगवान के वार्षिकतप आदि सद्अनुष्ठानों की गिनतीकर, अवंती सुकुमाल के दृष्टान्तादि से तुलनाकर, आर्यमहागिरि आदि के दृष्टान्तों से अनेक प्रकार के सद्अनुष्ठान बताये और च शब्द से अन्वय-व्यतिरेक से समिति-कषायादि की तथा गोचरी के ४२ दोषों का त्याग आदि की गाथाओं से यह आराधना मार्ग यह विराधना मार्ग है ऐसा नियंत्रण-नियमन सूचित किया। तो भी जो प्रेम आदर से कहने पर भी जीव प्रतिबोधित न हो, क्योंकि भारे कर्मी जीव तत्त्वदर्शी नहीं बन सकता तो विशेष अधिक क्या किया जाय? निश्चय से ऐसे भोगी जीवों का संसार अभी तक अनंतकाल होना चाहिए ।।४८१।। किमगं तु पुणो जेणं, संजमसेढी सिढिलिकया होइ । सो तं चिय पडिवज्जइ, दुक्खं पच्छा उ उज्जमइ॥४८२॥ 'किमगं' =किमंग प्राकृत होने से अनुस्वार विपर्यास उससे अगं के 103 श्री उपदेशमाला
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy