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________________ सुरवड़समं विभूई, जं पत्तो भरहचक्कवट्टी वि । माणुसलोगस्स पहू, तं जाण हिओवएसेण ॥४५२॥ मनुष्यलोक के छ खंड के स्वामी भरतचक्री ने भी इन्द्र जैसी समृद्धि प्राप्त की वह भी हितोपदेश आचरने के प्रभाव से ही हुआ ऐसा समझ । यह प्राप्ति कराने का सामर्थ्य हितोपदेश का ही है अतः कर्तव्य क्या ? तो कहा।। ४५२ ।। लद्धूण तं सुइसुहं जिणवयणुवएस - ममयबिंदुसमं । अप्पहियं कायव्यं अहिएस मणं न दायव्यं ॥ ४५३॥ श्रोतेन्द्रिय को सुखद अमृतबिन्दु समान श्री जिनवचनोपदेश प्राप्तकर आत्म हित करने की इच्छा वाले को जिनवचनानुसार वर्तन करना चाहिए और जिन वचन से निषिद्ध हिंसादि अहितकर में मन भी नहीं ले जाना चाहिए, तो फिर वचन काया को ले जाने की बात ही कहाँ ? ।।४५३ ।। हियमप्पणी करितो, कस्स न होड़ गरुओ गुरु गण्णी? । अहियं समायरंतो, कस्स न विप्पच्चओ होड़? ॥४५४ ॥ जिनवचनानुसार आत्मा के हित के लिए आचरण करनेवाला किसका 'गरुओ गुरु' प्रधान आचार्य समान और 'गण्य' = सर्व कार्य में पूछने लायक नहीं होता क्या? अर्थात् सर्व में गण्य मान्य बड़ा गुरु बनता है तब अहित की आचरणा करने वाला किसको अविश्वसनीय नहीं होता? होता ही है। यहाँ कोई यह माने कि हम हिताचरण के योग्य नहीं है हम किस प्रकार हित साधन करें ! तो यह कहना बराबर नहीं है क्योंकि अयोग्यता की कोई जन्म सिद्ध खान नहीं है किन्तु जिसमें गुण होते हैं वे पूज्य बनते हैं और गुण प्रयत्न साध्य है अतः गुण हेतु प्रयत्न करना चाहिए || ४५४ । । जो नियमसीलतयसंजमेहिं, जुत्तो करेइ अप्पहियं । सो देवयं व पुज्जो, सीसे सिद्धत्थओ व्व जणे ॥४५५॥ व्रत- नियम, शील, तप, संयम से युक्त बनकर जो आत्महिता है वह देव सदृश्य पूज्य बनता है (मांगलिक) सरसव सम मस्तक पर चढ़ता है अर्थात् उसकी आज्ञा शिरोधार्य बनती है ।। ४५५ ।। सव्यो गुणेहिं गण्णो, गुणाहिअस्स जह लोगवीरस्स । संभंतमउडविडयो, सहस्सनयणो सययमेड़ ॥ ४५६ ॥ सभी ज्ञानादि गुणों से माननीय - पूजनीय बनता है। जैसे उत्कट (सत्त्वादि) गुणों से लोक में (कर्म शत्रु को मारकर हटाने वाले) वीर रूप में श्री उपदेशमाला 96
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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