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________________ पुत्र को जाति की उपस्थिति में घर-परिवार की जिम्मेदारी सौंपकर उनकी अनुमति लेकर गृहवास से निवृत्त हुए । पौषधशाला में प्रवेश किया और विधिपूर्वक श्रावक की बारह प्रतिमाओं की निर्विघ्न रूप से आराधना करने “ लगे। साधना के श्रेष्ठ अवसर को पार कर लिया। एक बात ध्यान में रहे कि इन दोनों श्रावकों की बातें हम साथ-साथ कर रहे हैं। परन्तु घटनाएँ एक साथ ही घटित हुई हों, ऐसा नहीं लगता । हम तो समय संकोच के कारण और बहुत सारे वर्णन एक समान होने के कारण एक साथ देरख रहे हैं । निरुपसर्ग साधना : सिद्धि अन्य श्रावकों को प्रायः बहुत सारे उपसर्ग सहने करने पड़े । परन्तु ये दोनों महानुभाव इस सम्बन्धमें समान हैं कि उन्होंने निरुपसर्ग साधना की सफलता प्राप्त की । शरीर के मोहसे मुक्त होकर प्रतिमाओं की कठोर साधना में आगे बढ़ते हुए अध्यवसायों की शुद्धि के द्वारा एकाग्रता को सिद्ध कर एक . माह की संलेखना पूर्वक वे महानुभाव आठ भक्त के परिहार के अन्त में मांस और रक्त सूख जाने के कारण हड्डियों के ढांचे के समान काया को निर्मम भाव से त्याग कर समाधिपूर्वक मृत्यु की साधना कर देवलोक में पहुँचे। दोनों भाग्यशाली क्रमशः अरुणगत और अरुणकील विमान में देवबनकर उत्पन्न हुए। वहाँ से चार पल्योपम की स्थिति पूर्ण कर महाविदेह में मोक्ष को प्राप्त करेंगे । इतनी कथाएँ दोनों की एक समान हैं। इन दोनों महानुभावों का जीवन एक अद्भुत काव्य है। श्रावकों का यह सुरम्य आदर्श जीवन हमें और आपको प्रमाद से • बचानेवाले बनें और अप्रमत्त साधना के बल पर सिद्धिगति को प्राप्त करानेवाले बनें यही शुभकामना । प्रभुवीर के दश श्रावक ७२
SR No.002240
Book TitlePrabhu Veer ke Dash Shravak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size21 MB
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