SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हमारा निवेदन 'जिनवाणी' ही भव्य जीवों की शरण है। श्री तीर्थंकरदेवों के द्वारा अर्थ रूप में प्ररूपित तथा श्री गणधरदेवों के द्वारा सूत्ररूप में गुम्फित यह वाणी श्री आगमशास्त्रों के माध्यम से और छोटे-बड़े शास्त्रग्रन्थों, चरित्रग्रन्थों व उपदेशग्रन्थों के द्वारा हमारे महापुरुष सरल व स्पष्ट भाषा में इस प्रकार पान कराते आए हैं, जैसे माता भोजन के कौर बनाकर बालक के मुँह में देती है। जीवन के आठ-आठ वर्षों में प्रसरित पवित्रता के पुंज के समान और छियानवे वर्ष की वृद्धावस्था में भी एक युवक की भांति स्व-परोपकार में रत रहनेवाले जैनशासन के ज्योतिर्धर व्याख्यान वाचस्पति तपागच्छाधिपति पूज्य आचार्यदेवेश श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के सन्धिकाल में अपने अद्वितीय व्यक्तित्व के द्वारा धर्म का मर्म और मर्म का धर्म समझानेवाले विशिष्ट महापुरुष हुए। जिनके द्वारा बतलाए गए मार्ग पर चलकर प्रवचन के मर्म का प्रकाशन सरल, सचोट और सारगर्भित बना । जिससे अनेक समर्थधर्मदेशक जैनसंघ में मिले. ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी, संयमी, श्रमणश्रमणी वर्ग और श्रद्धासम्पन्न श्रावकवर्ग तैयार हुआ । छप्पन वर्षों का आचार्यपद पर्याय और छियासी वर्ष का संयमपर्याय धारण करनेवाले इस महर्षि की चिरविदाई और अन्तिमयात्रा इतिहास में उल्लेखनीय रही । उनकी अन्तिम संस्कारभूमि ये है पावनभूमि, यहाँ बार-बार आना' के नाद से गूंज उठी । समस्त भारतवर्ष के भक्तवर्ग ने एक भव्य स्मृतिमन्दिर का निर्माण किया।जिसकी प्रतिष्ठा छत्तीसदिवसीय भव्य महोत्सवपूर्वक स्वर्गीय
SR No.002240
Book TitlePrabhu Veer ke Dash Shravak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy