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________________ देव-प्रशंसा और क्षमायाचना दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए अलंकार और देदीप्यमान वस्त्रों में सुसज्जित वह देव कामदेव श्रावक के समक्ष आकाश-तल पर प्रगट होता है और कहता है: हे, देवानुप्रिय, कामदेव श्रमणोपासक तू धन्य है। तूपुण्य है, कृतार्थ है, कृत लक्षण है, तूने मनुष्य जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह प्राप्त कर लिया है। सचमुच हे महानुभाव! निर्गन्थ प्रवचन रूप जिशासन के प्रति तूने कैसी श्रद्धा प्राप्त की है?" स्वयं देवराज सौधर्माधिपति विराट देवसभा में कहते है कि देव, दानव, गन्धर्व भी तुझे निर्गन्थ प्रवचन से विचलित करने या भयभीत करने में समर्थ. नहीं है।' तब उसके वचन के प्रति श्रद्धा नहीं रखनेवाला मैं यहाँ आकर अपनी शक्ति का उपयोग कर आपको विचलित करने का प्रयत्न किया है। आपमुझे क्षमा करो। मैं अपराधी हूँ। आप क्षमा करने में समर्थ हैं। अब ऐसा अपराधमैं कभी नहीं करूंगा।' मैं आपसे क्षमायाना करता हूँ। यह कहकर देव अपने स्थान में चला गया और कामदेव श्रावक ने अभिग्रहपूर्ण किया। . प्रभु पधारे जब से प्रभु के पास श्रावकत्व स्वीकार किया, तब से उत्तम रीति से उसका आचरण करते हुए उस महानुभाव ने प्रतिमाओं का दृढ़ता पूर्वक पालन . किया और उपसर्गों को धैर्यपूर्वक सहन किये। उस दौरान श्रमण भगवान महावीरदेव भी चम्पानगरी के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे। चौंतीस अतिशय, वाणी के पैंतीस गुण तथा अष्ट महाप्रतिहार्यों की .................. प्रभुवीर के दश श्रावक ३३
SR No.002240
Book TitlePrabhu Veer ke Dash Shravak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size21 MB
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