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________________ बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम यन्नमस्यति सतीमिमां वृषात् कियच्च सद्दशं मृगीदृशः । संहतिः स्वयमिव हि तावतामेकशस्तव पदं हि ये गुणाः ॥६८॥ नैशमेव नयनाभिरामया बध्यते नवसुधारुचे रुचा । विद्ययेव निरवद्यवृत्तया चेतसं च सुद्दशा जगत्तमः ॥६९॥ सुभ्रुवो नु वदनेन बंधुना पद्मसारविजयी निशाकरः । संविभागविधिनेव यत्तयोः कांतिसंपदुभयोः प्रवर्तते ॥७०॥ मुख्यसौरभसमीरसंगतस्पंदिताधरसरागपल्लवा । निर्मलास्मितसुधानवोद्रमा स्पर्द्धते मधुवनश्रिया वधूः ॥७१॥ नयनों को मनोहर लगनेवाली चंद्रमा की चांदनी से तो केवल रात्रि का ही अंधकार नष्ट होता है परंतु इस महारानी के दर्शन तो जिसप्रकार निर्दोष चारित्र से भूषित विद्या से चित्त और संसार - सब जगह का अंधकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार सब अंधकार नष्ट हो गया ॥ ६८- ६९ ॥ १०६ सुंदर भ्रुकुटीवाली महारानी के मुख के साथ साथ ही चंद्रमाने कमलवन को जीता था इसी लिये मानों इन (चंद्रमा और इस रानी के मुख) की कांतिरूपी सम्पत्ति बराबर है । जिस प्रकार चंद्रमा की कांति है उसी प्रकार इस महारानी के मुख की भी है ॥७०॥ इस रानी के लाल अधरपल्लव, मुख की सुगंधित पवन से कंप रहे हैं । निर्मल मुस्कराहट रूपी सुधा का प्रसव कर रहे हैं इसलिये मधुवन की लक्ष्मी के साथ यह स्पर्द्धा ही मानो कर रही है ऐसा मालूम पडता है ॥ ७१ ॥ इसके बाद रानी के स्तन, उरुयुगल, नख आदि का वर्णन क्रमशः मिलता है, जो परंपरागत है । प्रकृति वर्णन : महाकाव्य में प्रकृति वर्णन के लिये भी ज्यादा अवकाश रहता है । महाकाव्य में प्राकृतिक दृश्यों और वस्तुओं का वर्णन प्राय: आलंबनरूप में, उद्दीपनरूप में, अलंकाररूप में, वस्तुगणना के रूप में और प्रतीक या संकेत के रूप में कीया जाता है । इस महाकाव्य में प्रकृति का अधिकतर वर्णन आलंकारिक योजना के अंगरूप में या पूर्वस्थित भाव की उद्दीप्ति के सहायक के रूप में हुआ है ।
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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