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________________ गोशीर्ष चंदन का लेप किया। उससे मुनि महाराज की मूर्छा भंग हुई। थोड़ी देर के बाद और लक्षपाक तैल की मालिश की। पहिली बार चर्मगत कीड़े निकाले थे; अबकी बार मांसगत कीड़े निकल गये। उनको भी पूर्ववत् गाय के शब में छोड़कर तीसरी बार भी इस प्रकार मालिश करने से हड्डियों में से कीड़ेनिकल आये । इसके बाद पुनः बड़े भक्ति भाव से जीवानंद ने मुनिमहाराज के शरीर में गोशीर्ष-चंदन का विलेपन किया। उससे उनका शरीर स्वस्थ होकर कुंदन की मांति चमकने लगा। जीवानंद ने और उसके पांचों साथियों ने भक्ति-पुरस्सर वंदना कर कहा – 'महाराज! हमने इतनी देर तक आप के धर्म-ध्यान में बाधा डाली इसके लिए हमें क्षमा कीजिए।' फिर रत्नकंबल और शेष गोशीर्ष चंदन बेचकर उस राशी को धर्म कार्य में खर्च कर दी। कुछ काल के बाद उन्हें वैराग्य उत्पन्न हुआ। जीवानंद ने अपने पांचों मित्रों सहित दीक्षा ले ली। अनेक प्रकार से जीवों की रक्षा करते और संयम पालते हुए वे तपश्चरण करने लगे। अंत समय में उन्होंने संलेखना करके अनशनव्रत ग्रहण किया और आयु समाप्त होने पर उस देह का परित्याग किया। दसवां भव : धन का जीव मुनि जीवानंद नाम से ख्यात शरीर को छोड़कर अपने पांचों मित्रों सहित, बारहवें देवलोक में इंद्र को सामानिक देव हुआ। यहां बाईस सागरोपम का आयु पूर्ण किया। ग्यारहवां भव : वहां से च्यव कर धनसेठ का (जीवानंद का) जीव जंबूद्वीप के पूर्वविदेह में, पुष्कलावती विजय में, लवण समुद्र के पास, पुंडरीकिणि नामक नगर के राजा वज्रसेन की धारिणी रानी की कूख से जन्मा। नाम वज्रनाभ रखा गया। जब ये गर्भ में आये थे तब इनकी माता को चौदह महा स्वप्न आये थे। जीवानंद के भव में इनके जो मित्र थे उनमें से चार तो इनके सहोदर भाई हुए और केशव का जीव दूसरे राजा के यहां जन्मा। जब ये वयस्क हुए तब इनके पिता 'वज्रसेन राजा ने दीक्षा ग्रहण : श्री आदिनाथ चरित्र : 8 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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