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________________ उग्र तपस्या कर, अर्हत्भक्ति आदि बीस स्थानकों की आराधना कर उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म बांधा और वे पृथ्वी मंडल पर जीवों को उपदेश देते हुए भ्रमण करने लगे। एक बार विहार करते हुए सुवर्णबाहु मुनि क्षीरगिरि नामक पर्वत के पास के क्षीरवणा नामक वन में आये। वहां सूर्य के सामने दृष्टि रख, कायोत्सर्ग कर आतापना लेने लगे। कमठ का जीव नरक से निकलकर उसी वन में सिंह रूप से पैदा हुआ था। वह दो रोज से भूखा फिर रहा था। उसने मुनि को देखकर घोर गर्जना की। मुनि ने उसी समय कायोत्सर्ग पूरा किया था। शेर की गर्जना सुन, अपने आयु की समाप्ति समझ, उन्होंने संलेखना की, चतुर्विध आहार का त्याग किया और शरीर का मोह छोड़कर ध्यान में मन लगा दिया। सिंह ने छलांग मारी और मुनि को पकड़ कर चीर दिया। नवां भव (महाप्रभ विमान में देव) :- सुवर्णबाहु मुनि शुभ ध्यानपूर्वक आयु पूर्णकर महाप्रम नाम के विमान में बीस सागरोपम की आयुवाले. देवता हुए। कमठ का जीव सिंह मरकर चौथे नरक में दस सागरोपम की आयुवाला नारकी हुआ और वहां की आयु पूर्णकर, तिर्यंच योनि में भ्रमण करने लगा। दसवां भव (पार्श्वनाथ तीर्थंकर) : जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में वाराणसी (बनारस) नाम का शहर है। उसमें अश्वसेन नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी रानी वामादेवी थी। एक रात में वामादेवी को तीर्थंकर के जन्म की सूचना देनेवाले चौदह महास्वप्न आये। मरुभूमि का जीव महापद्म नाम के विमान से च्यवकर, चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन विशाखा नक्षत्र में वामादेवी के गर्भ में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। गर्भकाल पूरा होने पर पोष वदि १० के दिन अनुराधा नक्षत्र में वामादेवी ने सर्प लक्षणवाले पुत्र को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी और इंद्रादि देवों ने जन्म कल्याणक महोत्सव किया। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 183 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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