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________________ १८. श्री अरनाथ चरित्र अरनाथस्तु भगवाँ, -श्चतुरारनभोरविः । चतुर्थपुरुषार्थश्री,-विलासं वितनोतु वः ॥ भावार्थ - चौथा आरा रूपी आकाश में सूरज के समान (तपनेवाले) भगवान अरनाथ चतुर्थ पुरुषार्थ यानी मोक्षलक्ष्मी तुम्हें देवें। प्रथम भव : ____ जंबूद्वीप के पूर्व विदेह में सुसीमा नाम की नगरी थी। उसका राजा धनपति था। उसको संसार से वैराग्य हुआ। उसने संवर नामक मुनि के पास दीक्षा ले ली। बीस स्थानक का तप कर तीर्थंकर गोत्र बांधा। . दूसरा भव : - आयु पूर्ण कर वह नवें ग्रैवेयक में देव हुआ। तीसरा भव : - वहां से च्यवकर धनपति का जीव हस्तिनापुर नगर के राजा सुदर्शन की रानी महादेवी की कुक्षि में दो बार चौदह स्वप्न से सूचित फाल्गुन सुदि २ के दिन जब चंद्र रेवती नक्षत्र में था तब इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। गर्भकाल के पूर्ण होने पर मार्गशीर्ष सुदि १० के दिन रेवती नक्षत्र में नंदावर्त लक्षणवाले, स्वर्ण वर्णी पुत्र को महादेवी ने जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी और इंद्रों ने जन्म कल्याणक महोत्सव मनाया। गर्भकाल में माता ने चक्र-आरा देखा था इससे पुत्र का नाम अरनाथ रखा गया। युवावस्था प्राप्त होने पर माता-पिता के आग्रह से प्रभु ने चौसठ : श्री तीर्थंकर चरित्र : 133 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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