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________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-६८ ( २४ ) ( राग - कान्हरी) पिया तुम निठुर भये क्यूं ऐसे ? मैं तो मन, वच, क्रम करी राऊरी, राऊरी रीत अनेसे ॥ पिया० ।। १ ।। फूल - फूल भँवर की सी भांउरी भरत हो, निवहै प्रीत क्यूं ऐसे ? मैं तो पिय ते ऐसी मिली प्राली, कुसुमवास संग जैसे ॥ पिया० ।। २ ।। अठी जात कहा पर एती, नीर निबहिये भैंसे । गुन प्रौगुन न विचारो श्रानन्दघन, कीजिये तुम हो तैसे ।। पिया० ।। ३ ।। अर्थ- सुमति अपनी सखी श्रद्धा को साथ रखकर अपने प्रात्मस्वामी को उपालम्भ देती हुई उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हुए कहती है कि हे स्वामिन्! आप इतने निष्ठुर क्यों हो गये जो मेरी ओर दृष्टि तक नहीं करते । आप मेरी खबर भी क्यों नहीं लेते ? मैं तो मन, वचन और काया से आपकी ही हूँ । सदा श्रापके स्वभाव के अनुसार ही मैं तो चलने वाली हूँ, परन्तु आपकी रीति अन्य प्रकार की ही है । मैं आपकी प्राप्ति के लिए चार समितियों और तीन गुप्तियों को धारण करती हूँ, पाँच महाव्रतों का पालन करती हूँ और मन में मैत्री, प्रमोद, माध्यस्थ्य और कारुण्य - इन चार भावनानों को भाती हूँ । हे स्वामिन्! मैं मन में प्रति पल आपका स्मरण करती हूँ । मेरे मन में आप ही श्राप हैं । आपके बिना अन्य राग-द्वेष आदि को मैं प्रविष्ट नहीं होने देती । मेरी वाणी पर भी आपकी ही रटन है । इतना सब करने पर भी हे स्वामी ! आप दया करके मुझे दर्शन क्यों नहीं देते ? क्या अब भी मुझमें आपकी सेवा करने में कोई कमी है ? मैंने अपना सर्वस्व आपके चरणों में अर्पित कर दिया है। अतः अब तो आप मुझ पर कृपा करके मुझे दर्शन दें ।। १ ।। जिस प्रकार भौंरा एक पुष्प से दूसरे पर और फिर तीसरे पुष्प पर चारों ओर चक्कर काटता है, उसी प्रकार हे चेतन ! श्राप ममता के वश में होकर चारों ओर भटक रहे हैं । इस प्रकार प्रेम कैसे निभ
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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