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________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-६४ (२१) .. (राग-सोरठ) मुने मिलावो रे कोई कंचन वरणो नाह। अंजन रेख न आँखड़ी भावे, मंजन सिर पड़ो दाह ॥मुने०॥१॥ कौन सेन जाने पर मन की, वेदन विरह अथाह । थर-थर देहड़ी धूजे म्हारी, जिम बानर भरमाह ।।मुने०॥२॥ देह न गेह न नेह न, रेह न, भावे न दूहा गाह। .. प्रानन्दघन वाल्हो बाँहड़ी साहबा, निस दिन धरूँ उमाह ।। मुने०॥३॥ अर्थ-अपने स्वामी (चेतन) के विरह से व्याकुल सुमति कहती है कि कञ्चन के समान वर्ण वाले मेरे स्वामी से कोई मेरा हितैषी मुझे मिला दे, मैं उसका अत्यन्त आभार मानूगी। प्रज्वलित अग्नि में यदि कञ्चन डाला जाये तो वह वैसा ही रहता है। आत्मा की भी वैसी स्थिति है। तीनों कालों में भी आत्म-द्रव्य का नाश नहीं होता। प्रात्मा कञ्चन के समान निर्मल है। स्वामी के विरह के कारण मुझे अपने नेत्रों में काजल की रेखा नहीं सुहाती। अाँसुत्रों के कारण काजल अाँखों में रहता ही नहीं है। स्नान के सिर पर तो माग लगे। वह जलन उत्पन्न करता है ॥१॥ ___ सुमति कहती है कि विरह की वेदना अगाध होती है। मेरे शुद्ध चेतन-स्वामी के विरह से मुझे अगाध वेदना होती है। स्वामी के विरह की उस वेदना को मैं ही जान सकती हूँ। पर मन का आशय कोई अन्य भला कैसे जान सकता है ? कोई भुक्त-भोगी ही दूसरे के अन्तर की व्यथा समझ सकता है। आत्म-स्वामी के प्रेम के कारण सचमुच मेरे मन की विचित्र स्थिति हो गई है। जिस प्रकार कोई बन्दर भ्रमित हुआ हो और बन्दरों के झुण्ड से अलग पड़ गया हो, वह थर-थर काँपता है, उस प्रकार मेरी देह अपने आत्म-स्वामी के विरह में उनका स्मरण कर-करके थर-थर काँपती है। अतः कोई उपकारी सन्त मेरे स्वामी से मेरा मिलाप करा दे। मैं इस उपकार को कदापि नहीं भूलूगी ॥२॥ सुमति (समता) कहती है कि अपने स्वामी का मिलाप हुए बिना मुझे देह प्रिय नहीं लगती। स्वामी के बिना घर में रहना भी मुझे अच्छा
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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