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________________ श्री आनन्दघन पदावली-६१ पैंतालीस पागम आदि जिनागमों का गुरु-गम से अध्ययन करना चाहिए। सिद्धान्तों का अध्ययन करने के पश्चात् आत्मा का ध्यान करना चाहिए। आत्मा का ध्यान करते-करते प्रात्म-समाधि प्राप्त होती है और तत्पश्चात् ही आत्मानुभव-ज्ञान प्राप्त होता है। अनुभवज्ञान के अभाव में आत्मा का मिलाप नहीं होता। मेघरूपी प्रिय के समक्ष देखकर पपीहा ‘पिउपिउ' की रटन करता है। जिस प्रकार प्रिय मेघ को बुला लाने के लिए वह पिउ-पिउ रटता है, उस प्रकार मेरा जीव रूपी पपीहा अपने शुद्धात्मरूप स्वामी को घर लाने के लिए 'पिउ-पिउ' की रटन करता है। जिस प्रकार पपीहा को मेघ के साथ प्रेम है, उस प्रकार मेरा जीव रूप पपीहा आत्मा रूपी मेघ से मिलने के लिए सदा उसका स्मरण करता रहता है और प्रात्मा रूपी मेघ के मिलने पर वह पूर्ण आनन्द को धारण करता है। मैं नित्य जाप जपता हूँ। परन्तु मेरे आत्मस्वामी से अभी तक मेरा मिलाप नहीं हुआ.। मैं क्या करूँ ? पपीहा मेरे प्राण पीने के लिए ही 'पिउ-पिउ' करता है और वह मेरे जीवन-धन को ला नहीं सकता ।। १ ।। ___ समता कहती है कि हे अनुभव ! प्रियतम के बिना मैं रात-दिन दुःखी रहती हैं। मैं अपनी समस्त सुध-बुध खोकर इधर-उधर भटक रही हूँ। मैं किसके समक्ष रुदन करके अपनी दशा व्यक्त करूं? मेरे तन-मन की वेदना कौन समझ सकता है ? हे अनुभव ! तू मेरी दशा अच्छी तरह समझता है। मैं तेरे समक्ष अपनी वेदना व्यक्त इसलिए कर रही हूँ कि तू मुझे अपने प्रियतम से मिला सकता है। तू मेरी व्यथा का अच्छी तरह अनुभव कर सकता है। तू मेरा पूर्ण विश्वास-पात्र है, अतः कुछ भी करके तू मेरे आत्म-स्वामी से मेरा साक्षात्कार करा। हे अनुभव ! . मुझ दुःखियारी का अब तू ही दुःख दूर कर सकता है।॥ २ ॥ हे अनुभव ! अंधेरी रात्रि में तारे ऐसे चमक रहे हैं मानों रात्रि अपने दाँत दिखाकर मेरी हँसी उड़ा रही है, इसे भी मैं सहन कर रही हूँ। मैंने विरह-व्यथा से रो-रोकर आँसुत्रों की धारा बहाकर भादौं माह का-सा कीचड़ कर दिया है, फिर भी मेरे प्रियतम को (प्रात्मस्वामी को) मुझ पर तनिक भी दया नहीं आई। हे अनुभव ! तू अच्छी तरह जानता है कि पति-वियोगिनी नारी का हृदय दुःखसागर में डूबा हुआ होता है। अतः तू मेरे प्रियतम से मेरा मिलाप करा। समता परमात्म स्वामी से मिलने के लिए सदा पातुर रहती है। उत्कृष्ट
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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