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________________ श्री आनन्दघन पदावली-४७ अर्थ -प्रानन्दघनजी कहते हैं कि हे अवधू ! मैं गुण-हीन क्या मांगू? मैं क्या याचना करूं? मुझ में याचना करने की तनिक भी योग्यता नहीं है। वे प्रभु तो आकाश के समान अनन्त गुणों वाले परम चतुर हैं। मैं किसी भी प्रकार से प्रवीण नहीं हूँ। मुझ में परमात्म-पद प्राप्त करने की योग्यता प्रतीत नहीं होती। याचना करने के लिए मैं न तो गाना जानता हूँ, न प्रसन्न करने के लिए वाद्ययन्त्र बजाना जानता हूँ, न मैं षड़ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत एवं निषाद आदि स्वरों के भेदं जानता हूँ। न मैं अपनी प्रसन्नता प्रकट करना जानता हूँ, न अपने हाव-भावों एवं वचन-चातुर्य से प्रभु को रिझाना जानता हूँ और न मैं प्रभु के चरणों की सेवा-विधि ही जानता हूँ। प्रभु की सेवा करना कोई सामान्य बात नहीं है। मन, वचन और देह अर्पित किये बिना प्रभु की सेवा हो नहीं सकती। स्वार्थ का परित्याग किये बिना परमात्म-पद की सेवा हो नहीं सकती। शुद्ध प्रेम एवं निष्काम करनी की जब प्राप्ति हो जाती है तब हम प्रभु-पद की सेवा के अधिकारी बन सकते हैं। प्रभुपद की सेवा के लिए हृदय-शुद्धि की आवश्यकता होती है। मुझ में प्रभु-पद की सेवा की योग्यता नहीं है ।।१।। ___ मैं चारों वेदों को नहीं जानता और न मुझे शास्त्रों का ज्ञान है। न मैं पिंगलशास्त्र के छन्दों के लक्षणों का ज्ञाता हूँ और न मैं न्यायशास्त्र व वाद-विवाद करना अर्थात् शास्त्रार्थ करना ही जानता हूँ। मुझ में कवियों जैसी वाक्-पटुता भी नहीं है। आनन्दघनजी कहते हैं कि मैं कुरान को भी नहीं जानता हूँ ॥२॥ __ भगवान के नाम का जाप करने की विधि से भी मैं अनभिज्ञ हूँ। उपांशु अथवा अजपाजाप प्रादि जाप के भेदों को मैं पूर्णतः नहीं जानता। नन्दावर्त, शंखावर्त, ऊँवृत्त, ह्रीं वृत्त आदि भेदों का भी मैं ज्ञाता नहीं हूँ। परमात्मा के स्वरूप के विषय में यदि कोई प्रश्न पूछे तो उसका किस प्रकार उत्तर देना यह भी मैं सम्यग् रूप से नहीं जानता। भाव के परिपूर्ण स्वरूप को भी मैं नहीं जानता। मुझे उत्तमोत्तम मनोरंजक कथा कहना भी नहीं पाता। भावों को उल्लसित करने की शक्ति भी मुझ में नहीं है। परमात्मा का साक्षात्कार हो वैसी भक्ति भी मैं पूर्णतया नहीं जानता। भक्ति के पूर्ण स्वरूप को तो केवलज्ञानी के अतिरिक्त अन्य कोई जान नहीं सकता। मैं उष्ण एवं शीत का भी परिपूर्ण स्वरूप नहीं जान सकता तो मैं गुणहीन क्या माँगू? हृदय में सद्गुणों के उत्पन्न होने पर स्वतः ही समस्त वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है। गुणों से इष्ट
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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