SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 430
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री आनन्दघन पदावली-४०३ ६. अनुत्तरोववाई दशांग, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाक, १२. दृष्टिवाद अंग। बारह उपांग-१. उववाइ, २. रायपसेणी, ३. जीवाभिगम, ४. पन्नवणा, ५. जंबूद्वीप-पन्नत्ति, ६. चंद्रपन्नत्ति, ७. सूरपण्णत्ति, ८. करिपा, ६. कप्पिवडंसिया, १०. पुप्फिया, ११. पुप्फचलिया, १२. वह्निदिशा-ये बारह उपांग जानें। और १. व्यवहार सूत्र, २. वृहत्कल्प, ३. दशाश्रुतस्कन्ध, ४. निशीथ, ५. महानिशीथ, ६. जीतकल्प --ये छह छेद ग्रन्थ हैं तथा १. चउसरण, २. संथारापयन्नो, ३. तंतवेयालीय, ४. चंदाविजय, ५. गणिविज्जा, ६. देविदथुनो, ७. वीरथुप्रो, ८. गच्छाचार, ६. जोतिकरंड, १०. पाउरपच्चक्खाण, ये दस पयन्ना के नाम तथा १. आवश्यक, २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. अोधनियुक्ति-ये चार मूल सूत्र तथा १. नंदि, २. अनुयोगद्वार--ये पैंतालीस पागम हैं । - श्रीमद् आनन्दघनजी ने भगवान श्री अजितनाथ के स्तवन में प्रभु का मार्ग बताया है'पंथड़ो निहालू रे बीजा जिन तणो, .... . अजित अजित गुणधाम' श्रीमद का कथन है कि आगमों एवं द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से पूर्वाचार्यों से चली आ रही चारित्र-मार्ग की परम्परा से मोक्ष-मार्ग है। यदि आगमों को मान्य नहीं किया जाये तो अकेली परम्परा से क्या होगा? इस सम्बन्ध में श्रीमद् ने कहा 'पुरुषपरम्पर अनुभव जोवतां रे, अंधोअंध पुलाय ।' । यदि पुरुष परम्परा के अकेले अनुभव से देखे तो अंधे को अन्धा सहारा देकर चल रहा हो वैसा प्रतीत होता है और जीत-व्यवहार परम्परा को छोड़ कर अकेले आगमों से मोक्ष-मार्ग देखे तो चारित्र ग्रहण करने का ठिकाना नहीं है। सारांश यह है कि गुरु परम्परा, जीतकल्प व्यवहार और आगमों के द्वारा मोक्षमार्ग-प्रदर्शक चारित्र की आराधना की जा सकती है। ___ श्रीमद् अानन्दघन जी ने अभिनन्दन प्रभु के स्तवन में दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व के सम्बन्ध में सामान्यतया अपने विचार व्यक्त किये हैं। उनका आशय है कि पूर्वधरों की तरह वर्तमान में आगमवाद में परिपूर्ण गुरुगम का ज्ञाता कोई गुरु नहीं है। वर्तमान समय में पूर्वधरों के गुरुगम का
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy