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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६६ बोला, "धन्य है, जिसके मूत्र में स्वर्ण-सिद्धि है उसे रस-सिद्धि से क्या प्रयोजन है ? धन्य है, श्रीमद् आनन्दघन जी को !" यह कहता हुआ वह शिष्य चला गया। यह सब योग-शक्ति का प्रभाव है। ज्वर को वस्त्र में उतार दिया योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी के चमत्कारों की खबरें सर्वत्र फैलने लगीं। वे मारवाड़-क्षेत्र में जंगलों, पर्वतों और गांवों में विचरण करने लगे। एक बार वे जोधपुर के समीप किसी पर्वत पर एक देवकुलिका में रहे थे। जब जोधपुर के तत्कालीन महाराजा को श्रीमद् आनन्दघन जी के वहाँ स्थिरता के समाचार मिले तो वे उनके दर्शनार्थ वहाँ गये। उस समय श्रीमद् आनन्दघन जी को तीव्र ज्वर था। महाराजा के आगमन का समाचार ज्ञात होने पर श्रीमद् आनन्दघन जी ने अपना ज्वर अपने वस्त्र में उतार दिया और उस वस्त्र को तनिक दूरी पर रख दिया और वे जोधपुर के महाराजा को उपदेश देने लगे। उन्होंने उन्हें आत्म-गुणों की प्राप्ति के अनेक उपाय सुझाये—“प्रात्मा का मूल्य समझे बिना देह की उपयोगिता नहीं ज्ञात होती। सन्तों की सेवा-भक्ति किये बिना राज्य-कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती। सन्तों की सेवा से ही राजा की बुद्धि निर्मल रहती है और साधु-सन्तों के उपदेश से राज्य में शान्ति का वास रहता है। लोगों के धर्मात्मा बनने से राजा भी लाभान्वित होता है। सन्त-साधुओं की भक्ति करने से एवं उनकी उपासना करने से राजा का कल्याण होता है। दान, शील, तप एवं भाव से धर्म की आराधना करनी चाहिए।" इस प्रकार अनेक प्रकार से योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी ने जोधपुर के महाराजा को अमूल्य उपदेश दिया। उपदेश पूर्ण होने पर महाराजा की दृष्टि तनिक दूर पड़े थर-थर काँपते वस्त्र पर पड़ी। महाराजा विचार में पड़ गये कि वह वस्त्र क्यों काँप रहा है ? राजा कोई निर्णय नहीं कर सके, अतः उन्होंने श्रीमद् को पूछ ही लिया। श्रीमद् अानन्दघन जी ने बताया कि वस्त्र में ज्वर के पुद्गल हैं। मुझे आपसे बातें करनी थीं, आपको उपदेश देना था। अतः मैंने वस्त्र में ज्वर उतार कर उसे दूर रख दिया था। अब मैं पुनः उक्त वस्त्र पहनूंगा।" इससे प्रकट होता है कि श्रीमद् में ज्वरं दूर करने की शक्ति थी। कुछ भी हो श्रीमद् में अनेक प्रकार की शक्तियाँ थीं।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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