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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६२ होने पर ज्ञान भी नष्ट हो जायेगा। घटादि पदार्थों की तरह ज्ञान उनके साथ नष्ट नहीं होता। अतः ज्ञान स्वकाल में अनन्त पर्यायों के समय अपनी सत्ता में ही विद्यमान रहता है। वह पर पर्याय रूप नहीं होता। अतः हे ज्ञानमय स्वामिन् ! आप मेरे ध्रुवपदरामी हैं ।। ५ ।। अर्थ-भावार्थ:-पर-भाव में परिणमन करते समय पर रूप बन जाने पर भी आत्मा को अपनी सत्ता और अपने स्थान में स्थिर कहते हो? चतुष्कमयी सत्ता नाशवान होने के कारण ज्ञेय में स्थिर नहीं रह सकती। तब फिर आत्मा को सर्वज्ञ कैसे कहते हो ॥ ६॥ .. अर्थ-भावार्थ:-आत्मा का एक गुण अगुरु-लघु है अर्थात् न भारी और न हल्का। आत्मा अपने 'अगुरु-लघु' गुण को देखते हुए समस्त परद्रव्यों को देखता है। समस्त द्रव्यों में १ अस्तित्व, २ वस्तुत्व, ३ द्रव्यत्व, ४ प्रमेयत्व, ५ प्रदेशत्व और ६ अगुरुलघुत्व ये छह साधारण गुण विद्यमान हैं। इन छह सामान्य गुणों के कारण द्रव्यों में साधर्म्य है। इसलिए जिस तरह दर्पण एवं जल में वस्तु का प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी तरह ज्ञान में ज्ञेय प्रतीत होते हैं और वे ज्ञान से जाने जाते हैं। इस तरह ज्ञान पर-परिणति में भी नहीं जाता और न वह नष्ट ही होता है क्योंकि दर्पण में अग्नि का प्रतिबिम्ब पड़ने से दर्पण नहीं जलता। वह तो सदा एक सा रहता है। यही ज्ञान का स्वभाव है ।। ७ ।। अर्थ-भावार्थः-हे पार्श्वनाथ जिनेश्वर ! , आप पारसमणि के समान हैं जो लोहे को स्वर्ण बनाती है, परन्तु आप तो वैसी पारसमणि नहीं हैं। आप तो ऐसे पूर्ण रसिक शिरोमणि पारस हैं जो अन्य को भी पारस बना देते हैं। आप में वे गुण हैं जिनके स्पर्श से मुझमें आनन्द का समूह व्याप्त हो गया है। आत्म-गुणों के स्पर्श से वह आनन्द का समूह पारस बन जाता है ।। ८ ।। ( २४ ) श्री महावीर जिन स्तवन __(राग-धन्याश्री) वीरजी ने चरणे लागू, वीर पणु ते मांगू रे। मिथ्यामोह तिमिर भय भागू, जीत नगारू वामू रे । वीरजी० ॥ १॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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