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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एव उनका काव्य-३६० सर्व व्यापी कहे सर्व जाणग पणे, पर-परणमन स्वरूप । पर रूपे करी तत्त्वपणु वही, स्व सत्ता चिद्रूप, सुग्यानी। . ध्रुव० ।। २ ॥ ज्ञेय अनेके हो ज्ञान अनेकता, जल भाजन रवि जेम सुग्यानी । द्रव्य एकत्व पणे गुण एकता, निज पद रमतां हो खेम, सुग्यानी। ध्रुव० ॥ ३॥ पर क्षेत्रे गम्य ज्ञेय ने जाणवे, पर क्षेत्री थयु ज्ञान, सुग्यानी । अस्तिपणु निज क्षेत्रे तुमे कहो, निर्मलता गुणमान, सुग्यानी । ध्रुव० ।। ४ ॥ ज्ञेय विनाशे हो ज्ञान विनश्वरू, काल प्रमाणे थाय, सुग्यानी । . स्वकाले करि स्व सत्ता पणे, ते पर रीते न जाय, सुग्यानी । ध्र व० ।। ५ ।। पर भावे करी परता पामता, स्व सत्ता थिर ठाण, सुग्यानी । आत्म-चतुष्कमयी परमां नहीं, ___ तो किम सहुनो रे जाण, सुग्यानी। - ध्रुव० ।। ६ ।। प्रगुरुलघु निज गुण ने देखतां, द्रव्य सकल देखंत, सुग्यानी। साधारण गुण नो साधर्म्यता, दर्पण जल दृष्टांत, सुग्यानी । 'ध्र व० ॥ ७ ॥ श्री पारस जिनवर पारस समो, पिण इहां पारस नाही, सुग्यानी। पूरण रसियो हो निज गुण परसनो, 'अानन्दघन' मुझ मांही, सुग्यानी । ध्रुव० ।। ८ ॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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