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________________ श्री आनन्दघन पदावली - ३१७ एक प्ररज सेवक तणी रे, अवधारो . कृपा करी मुझ दीजिये रे, 'आनन्दघन' जिनदेव | पद सेव । विमल ।। ७ ।। शब्दार्थः — दोहग = दुर्भाग्य | टल्या टल गये । । नेत्रों से पर्वत । गंजे=जीते । . नरखेट = नराधम शिकारी, मोह आदि कषाय हुए । दीठा = देखा । लोयण = लोचनों से, लीनो = लीन । रंक = तुच्छ । मन्दर = मेरु विसरामी विश्राम स्थल । वाल्हो = प्रिय | पसरतां = फैलते ही । प्रतिषेध = रुकावट । हुई । अवधारो = ग्रहण करो । चो = का । अमी = अमृत | । धींग = = प्रबल । सीझा = सफल पामर = पापी | नागिन्द= नागेन्द्र वेध = कसक । झीलती = भरी अर्थ - भावार्थ:- योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि श्री विमल जिनेश्वर के दर्शन से मेरे समस्त दुःख एवं दुर्भाग्य दूर हो गये हैं । मुझे सुख और रत्नत्रय रूपी सम्पत्ति प्राप्त हो गई है । ऐसे समर्थ स्वामी जब मेरे सिर पर हैं तब भला मोह आदि शिकारी ( शत्रु) मुझे कैसे जीत सकते हैं । आज मैंने ज्ञान चक्षुत्रों से श्री विमल जिनेश्वर के दर्शन कर लिये हैं, जिससे मेरे समस्त मनोवांछित कार्य सिद्ध हो गये हैं ।। 11 कमल को मैला कीचड़ युक्त देखकर लक्ष्मी ने उस अस्थिर स्थान का परित्याग कर दिया है और आपके चरण रूपी कमल को निर्मल एवं स्थिर स्थान वाला देखकर लक्ष्मी ने वहाँ अपना निवास कर लिया है ।। २ ।। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी के चरणों में कोटि-कोटि वन्दन । - 20201 फैक्ट्री 20360 घर महालक्ष्मी ऑयल इण्डस्ट्रीज खाद्य तेलों के विक्रेता G-45, इण्डस्ट्रियल एरिया, मेड़ता सिटी (राज.) 341510
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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