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________________ श्री आनन्दघन पदावली-२६३ प्रभो! आपका दर्शन कैसे होगा? इसके हेतु के विवाद में चित्त लगा कर देखा जाये तो नयवाद को समझना अत्यन्त ही दुष्कर है। आगमों के ज्ञाता कोई सद्गुरु भी नहीं मिल रहे हैं, जिसके कारण चित्त में असमाधि है, उद्विग्नता है ।। ३ ।। हे जगत के नाथ ! आपके दर्शन में रुकावट डालने वाले घाती कर्म बाधक हैं। यदि धृष्टता करके साहस के साथ मार्ग पर चलू तो किसी ज्ञानी का साथ भी नहीं मिलता ।। ४ ।। हे स्वामिन् ! यदि आपके दर्शन की रट लगाता हुअा फिरता रहूँ तो जंगल के रोझ के समान लोग मुझे मानते हैं। रोझ जंगल में प्यास के कारण पानी की खोज में भटकता है, उसी प्रकार मैं दर्शन के लिए भटक रहा हूँ। जिसको प्रात्म-साक्षात्कार रूपी अमृतपान करने की अभिलाषा हो, उसकी. प्यास मतवादियों के सिद्धान्त रूपी विष-पान से कैसे तृप्त हो सकती है ? ॥५॥ हे त्रिभुवन स्वामिन् ! मुझे मृत्यु और जीवन से कोई कष्ट नहीं है । मुझे तो आपके दर्शन हो जाये तो मेरे समस्त कार्य सफल हो जायें। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे अनन्त आनन्द के स्वामी ! वैसे तो आपके दर्शन अत्यन्त ही दुर्लभ हैं परन्तु आपको कृपादृष्टि से वे अत्यन्त सुलभ हैं ।। ६ ।। PM 'हे नाथ ! आपके दर्शन में अनेक घाती कर्म बाधक हैं। दीन-दयालु ! मुझे तो केवल आपके दर्शन चाहिए।' ये उद्गार थे महान् योगिराज श्री आनन्दघनजी के जिन्होंने अध्यात्म के द्वारा स्व-पर जीवन धन्य-धन्य कर दिया। ऐसे योगिराज को हमारे कोटि कोटि वन्दन । दुकान-20122 घर-20127, 20171 रामदास रामानन्द एण्ड कम्पनी : ___जनरल मर्चेन्ट एण्ड कमीशन एजेन्ट दुकान नं. 8, कृषि मण्डी, मेड़ता सिटी-341510 (राजस्थान)
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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