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________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २८६ तर्क विचारे वाद परम्परा रे, पार न पहुँचे कोय | अभिमत वस्तु वस्तुगते कहे रे, ते विरला जग जोय । पंथ० ।। ४ ।। वस्तु विचारे दिव्य नयरण तरणो रे, विरह पड्यो निरधार । तरतम जोगे रे तरतम वासना रे, वासित बोध आधार । पंथ० ।। ५ ।। काल-लब्धि लहि पंथ निहालस्युं रे, ए आशा अवलम्ब । ए जन जीवै जिनजी जाणजो रे, 'प्रानन्दघन' मत अम्ब । पंथ ० ।। ६ ।। निहालूँ = देखता हूँ | बीजा = दूसरे । शब्दार्थ –पंथड़ो = मार्ग | तणो का | अजित = प्रजेय, द्वितीय तीर्थंकर का नाम । धाम = घर, मण्डार ॥ किश्यु = कैसा | तिरण = उनसे । हूँ = मैं | चरम = चर्म । जोवतो = देखता हुआ । सयल = सकल । पलाय= दौड़ता है । ठांय स्थान | अभिमत = इच्छित । वस्तु = तत्त्व | विरला = कोई । वासित = गंधयुक्तः । काललब्धि = योग्य समय । लहि = प्राप्त करके । अवलम्ब= सहारा । अम्ब= ग्राम । अर्थ - भावार्थ - दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथ जिनेश्वर के उस मार्ग की ओर निहारता हूँ, जिस मार्ग में उन्होंने सिद्धि प्राप्त की है और जिस मार्ग का उन्होंने उपदेश दिया है । आपका 'अजित' नाम और 'गुणधाम' विशेषण दोनों युक्तिसंगत हैं क्योंकि श्राप राग-द्वेष आदि शत्रुत्रों से अजेय हैं और अनन्त गुणों के धाम हैं। मेरा 'पुरुष' नाम कैसा ? पुरुषार्थ के बिना पुरुष कहलाना निरर्थक है क्योंकि आपने जिन रागादि शत्रुओं को जीता था, उनसे मैं जीत लिया गया हूँ। मैं उनसे पराजित हो गया हूँ ।। १॥ आपके मार्ग को आप द्वारा बताये गये आध्यात्मिक मार्ग को चरम नेत्रों से देखते हुए तो समस्त संसार भूला भटका हुआ ही है । जिन नेत्रों के द्वारा आपका मार्ग दृष्टिगोचर हो सकता है उन नेत्रों को तो दिव्य ( अलौकिक ) ही समझो। आपके स्याद्वाद मार्ग को देखने के लिए ज्ञान चक्षु ही उपयोगी हैं ॥ २ ॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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