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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२८२ प्रकार तीर्थंकरों द्वारा कथित गुणों को सम्बोधित करके वास्तविक वर्णन किया गया है। श्रीमद् विहार करते-करते एक बार मेड़ता गये थे। वहाँ एक सेठ की युवा पुत्री का पति चल बसा। युवती पति के साथ जलकर सती होना चाहती थी। उस समय श्रीमद् गाँव के बाहर श्मशान की ओर एक स्थान पर बैठे थे। युवती वहाँ होकर श्मशान की ओर जा रही थी। श्रीमद् ने उसके समीप जाकर उसे भाँति-भाँति से समझाया और कहा कि शव के साथ जल मरने से तुझे तेरे पति का मिलाप होना दुर्लभ है। यदि तू अष्टकर्मरहित, शुद्ध-बुद्ध परमात्मा श्री ऋषभदेव भगवान को आत्मा में रही हुई चेतना के निमित्त कारण रूप में प्रति माने तो आत्मा शुद्ध बने। इस प्रकार उस सेठ-पुत्री को उपदेश देते-देते श्रीमद् आनन्दघनजी जिनेश्वर श्री ऋषभदेव की भक्ति में तन्मय होकर हृदय के उद्गारों के रूप में चौबीसी का प्रथम. स्तवन ललकार उठे........ 'ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, और न चाहूँ रे कन्त'
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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