SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२६४ (३०) (राग-बसन्त) तुम ज्ञान विभो फूली बसन्त, मन मधुकर ही सुख सों रसंत । तुम० ।। १ ।। दिन बड़े भये वैराग्य भाव, मिथ्या मति रजनी घटाव । तुम ।। २ ।। बहुफूली फली सुरुचि बेल, ज्ञाता जन समता संग ‘केल । तुम० ।। ३ ।। जानत बानी पिक मधुर रूप, सुरनर पशु प्रानन्दघन सरूप । तुम० ।। ४ ।। टिप्पणी-इस पद की भाषा शैली-भी प्रानन्दघन जी से भिन्न है। इस पद की भाषा 'ब्रज' है जबकि श्रीमद प्रानन्दघन जी की भाषा प्रायः राजस्थानी है। यह पद प्रागरा निवासी द्यानतराय जी का अर्थ-भावार्थ-हे प्रभो! आपके ज्ञानरूपी वसन्त फली है जिसमें मन रूपी मधुकर सुख का रसिक बना है। वैराग्य भाव रूपी दिन बड़े हो गये हैं और मिथ्यामति रूपी रात्रि घटने लगी है। सुरुचि रूपी लताएँ अत्यन्त फली-फली हैं। उस वसन्त में ज्ञाताजन आत्मा स्वयं समतारूपी स्त्री के साथ क्रीड़ा करती रहती है। पिक (कोयल) की मधुर वाणी सचमुच कानों में मधुर लगती है। श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि सुर, मनुष्य एवं पशु भी ज्ञान रूपी वसन्त ऋतु के सम्बन्ध से आनन्दमय बन गये हैं। विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी ने प्रभु के ज्ञान को वसन्त ऋतु की उपमा देकर अपने आन्तरिक वसन्त का सम्यक् प्रकार से वर्णन किया है। प्रभु के ज्ञान से जीव के हृदय में वैराग्य उत्पन्न होता है। दुःख-गर्भित वैराग्य एवं मोह-गभित वैराग्य का नाश होने पर ज्ञान-गर्भित वैराग्य प्रकट होता है। परमात्मा की वाणी के द्वारा आत्म-ज्ञान होने पर वैराग्य भाव रूपी दिन बड़ा होता जाता है और मिथ्यामति रूपी रात्रि प्रतिदिन घटती रहती है। ऐसा आन्तरिक
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy