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________________ श्री आनन्दघन पदावली-२६१ कुलटा कुटिल कुबुद्धि कुमता, छंडो व निज चारो। 'सुख प्रानन्द' पदे तुम बेसी, स्व पर कु निस्तारो ।। चेतन० ॥ ४॥ टिप्पणी-यह पद भी श्रीमद् प्रानन्दघन जी का नहीं है। यह भी 'सुख प्रानन्द' नामक कवि द्वारा रचित प्रतीत होता है। अर्थ-भावार्थ-विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे चेतन ! तुम उत्तम आत्मिक ज्ञान की सोचो और जगत् का जड़ वस्तु सम्बन्धी ज्ञान तज कर अध्यात्म ज्ञान ग्रहण करो। स्याद्वाद भाव से आत्मा का स्वरूप पहचान कर अन्तर में 'सोऽहं सोऽहं' शब्द का सूक्ष्म जाप करो। आत्मा में सत्ता से विद्यमान परमात्मत्व 'मैं' ही हूँ। आत्मा ही परमात्मा है, परमात्मा ही सिद्ध है। आत्मा तथा परमात्मा में भेद कराने वाले कर्म हैं । कर्म का नाश होने पर आत्मा ही परमात्मा कहलाता है। आत्मा ही मैं हूँ, आत्मा में जो परमात्मपना है, वही मैं हूँ। ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि अनन्त गुणमय आत्मा मैं हूँ। 'सोऽहं' का जाप श्रेष्ठ है अतः श्वासोच्छ्वास में उपयोग में रहकर इसका जाप करो। हे चेतन ! 'सोऽहं' शब्द के जाप से तुम अपने शुद्ध स्वरूप के उपयोग में रहो ॥१॥ शुद्ध निश्चय नय से आत्मा के शुद्ध लक्षण का अवलम्ब लेकर शुद्ध प्रज्ञा रूपी छैनी को देखो। जड़ और चेतन की जो अशुद्ध एकाकार परिणति हो चुकी है उसके मध्य में पड़कर यह छैनी जड़ एवं चेतन की परिणति को भिन्न करती है। - अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक में शुद्ध प्रज्ञा रूपी छैनी उत्पन्न होती है और वह जड़ एवं चेतन की एकाकार परिणति को दो प्रकार से अलग करती है अर्थात् जड़ को जड़ भाव से बताती है और चेतन को चेतन भाव से बताती है। हंस जिस प्रकार क्षीर-नीर को अलग-अलग करता है, उस प्रकार आत्मा भी शुद्ध प्रज्ञा रूपी छैनी के द्वारा जड़ एवं स्वयं को भिन्न-भिन्न करती है, जिससे आत्मा अपनी सहज दशा की ओर उन्मुख होती है, अर्थात् आत्मा अपना शुद्ध स्वरूप अंश-अंश प्रकट करती है। इस तरह आत्मा अपनी शुद्धता की वृद्धि करती है। श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे चेतन! इस प्रकार तुम अपने शुद्ध स्वरूप का विचार करो ॥२॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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