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________________ श्री श्रानन्दघन पदावली- २३७ भक्ति की धुन में रसिक बना भक्त एक छोटे बच्चे की तरह भगवान को पिता तुल्य मानकर जो वचन कहता है उस समय वह जगत् के साथ का द्वैतभाव भूल जाता है । उसका अन्तर भक्ति रस से श्रानन्दमय हो जाता है, वह भक्ति योग की समाधि का अनुभव करता है । हे नाथ ! जो बात गई, सो गई । अब आप पुनः ऐसा न करें। आप अपने सेवक का उद्धार करने में तनिक भी विलम्ब न करें । सेवक का उद्धार करना आपका परम कर्त्तव्य है । मैं आपके भक्ति रूपी द्वार पर आप मुझे अपना बना लें । अब तो आप केवल यह कहें कि तू मेरा है । बस, फिर मुझ सेवक के आनन्द का पार नहीं रहेगा ।। १३ ।। हे भगवन् ! अब तो अपने दास को प्राप सुधार लीजिये । मैं आपको बार बार क्या कहूँ ? हे आनन्द के घनभूत परमात्मा ! आप अपने 'हरि' नाम की रीति का निर्वाह करें। इस प्रकार श्रीमद् आनन्दघनजी ने श्रीकृष्णरूप वीतरागदेव को निवेदन किया । यहाँ राग-द्वेष का क्षय करके क्षायिक भाव से सिद्ध बने परमात्मा को कृष्ण कहकर उनकी स्तुति की गई है । केवलज्ञान में लोकालोक का आभास होता है । अतः केवलज्ञान की अपेक्षा सिद्ध भगवान विष्णु कहलाते हैं । किसी भी नाम से वीतराग जिनेश्वर की स्तुति की जाये तो कर्म का क्षय होता है । ऐसा श्री बुद्धिसागरजी का मत है । १४ ॥ ( ( १६ ) राग - श्रासावरी ) अवधू राम नाम जग गावे, बिरला अलख लखावे ।। • मतवाला तो मत में माता, मठवाला मठ राता । जटा जटाधर पटा पटाधर, छता छताधर ताता ।। अवधू० ।। १ ।। श्रागम पढि प्रागमधर थाके, मायाधारी छाके । दुनियाधार दुनी सो लागे, दासा सब श्रासा के || प्रवधू ० ।। २ ।। फंद रेता । प्राणी तेता || अवधू० ।। ३ ।। बहिरात मूढा जग जेता, माया के घट अन्तर परमातम भावे, दुरलभ
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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