SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री आनन्दघन पदावली-२२७ . जाते हैं। श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि शुद्ध चेतना अत्यन्त प्रेममय है। उसके उद्गार विचारणीय हैं। वह घर से चली जाना चाहती है, योगिनी बनकर दूर जाना चाहती है। ( १४ ) . ( राग-यमन ) लागी लगन हमारी, जिनराज सुजस सुन्यो मैं ।। लागी० काहूके कहे कबहू नहीं छूटे, लोकलाज सब डारी । जैसे अमली अमल करत समें, लाग रही ज्यू खुमारी ।। जिन० ।। १ ।। जैसे योगी योग ध्यान में, सुरत टरत नहीं टारी । तैसे प्रानन्दघन अनुहारी, प्रभु के हूँ बलिहारी ॥ जिन० ।। २ ॥ ___नोट-यह प्रद भी शंकास्पद है क्योंकि इसकी भाषा-शैली भी श्रीमद् प्रानन्दघनजी की भाषा-शैली से भिन्न है । अर्थ -हे जिनेश्वर भगवान ! मैंने जब से आपका सुयश सुना है, अर्थात् आपकी विषय-कषायों पर विजय तथा मैत्री, प्रमोद, कारुण्य एवं माध्यस्थ्य भावना के विषय में सुना है, तब से ही मेरी लगन आपके साथ लग गई है, मेरी दृढ़ प्रीति आपसे हो गई है। ___यह लगन जो मेरी आपके साथ लग गई है वह किसी के कहने से .नहीं छट सकती। आपसे प्रीति लगाने के लिए मैंने लोक-लज्जा का परित्याग कर दिया है। जिस प्रकार अफीमची पर नशा करते समय नशे का प्रभाव बढ़ता जाता है, उसी प्रकार मेरी लगन आपके साथ बढ़ती जा रही है ।। १ ॥ विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कह रहे हैं कि हे जिनेश्वर भगवान मेरी आपके साथ लगन लग गई है। मैं आपके ज्ञानादि गुणों का अत्यन्त प्रेमी बन गया हूँ। आपकी कीर्ति सुन कर संसार के लोगों की लज्जा का परित्याग करके मैंने आपका शुद्धस्वरूप अङ्गीकार किया है। मैंने अब संसार की समस्त जड़ वस्तुओं का परित्याग कर दिया है। मैंने आपके शुद्ध गुणों को पहचान कर आपसे प्रीति जोड़ी है।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy