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________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २१४ है । यह पद शंकास्पद है क्योंकि इसकी भाषा एवं शैली श्री श्रानन्दघनजी की शैली से सर्वथा भिन्न है । अर्थ – हे दुल्हन ! हे नई नवेली नारी ! हे चतुर्थ गुणस्थान में प्राप्त श्रद्धा सम्यक्त्वी प्रात्मा ! तू अत्यन्त ही बावरी है क्योंकि तू जानती है कि पति बड़ी कठिनाई से मिलेगा, फिर भी तू सो रही है और तेरा पति जग रहा है। पति विभाव दशा में है। दुल्हन ने उत्तर दिया कि मेरा प्रियतम अत्यन्त ही चतुर है और मैं पूर्णतः अज्ञानी हूँ। मैं तो कुछ भी नहीं जानती सर्वथा अनभिज्ञ हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए ? आनन्दघन जी कहते हैं कि दुल्हन अपने प्रियतम के दर्शन की प्यासी है। वह तो लज्जा - मर्यादा त्याग कर घूँघट हटाकर प्रियतम का मुँह देखने लग गई और आशा करने लगी कि अब ये प्रियतम मेरी ओर निहारेंगे । ( विभावदशा छोड़कर स्वभाव दशा में आयेंगे ) ॥ १ ॥ " विवेचन - प्रात्मा चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्व प्राप्त करता 1 केवलज्ञान की दृष्टि तेरहवें गुणस्थान में प्राप्त होती है । अनुभव, कहता है कि हे दुर्लभ केवलज्ञान दृष्टि ! तू क्यों सो रही है ? तेरे स्वामी चतुर्थ गुणस्थान में जग रहे हैं । जब तक आत्मा तेरहवें गुणस्थान में प्रविष्ट न हो, तब तक केवलज्ञान प्रकट नहीं होता । जहाँ चतुर्थ गुणस्थान में श्रात्मा होता है, वहाँ केवलज्ञानावरणीय कर्म के उदय से केवलज्ञान दृष्टि प्राच्छादित होती है । अतः आत्म-स्वामी के जाग्रत रहने पर भी वह नींद में प्रतीत होती है । अनुभव उसे सीख देने तु कह रहा है कि तू क्यों सो रही है ? तब वह उत्तर देती है कि मेरा स्वामी आत्मा तीन भुवन का स्वामी है, परन्तु मैं तो केवलज्ञानावरणीय कर्म के उदय से सर्वथा अनभिज्ञ हूँ । मुझ पर इतने अधिक प्रावरण आ गये हैं कि मैं चतुर्थगुणस्थान में स्थित अपने आत्म-स्वामी को पहचान भी नहीं सकती । चौथे गुणस्थान में मेरी दृष्टि ही नहीं खुलती । मैं नहीं जानती कि क्या होगा ? मेरे स्वामी के बिना मुझे कुछ भी प्रिय नहीं है । इस पर केवल दृष्टि रूपी नारी आत्मस्वामी में अत्यन्त लीन हो गई और अपने शुद्ध चेतन का स्वरूप निहारने के लिए तत्पर हुई । जब आत्मस्वामी बारहवें गुणस्थान पर पहुँचे तब स्वामी के दर्शन की प्यास बुझाने के लिए केवलज्ञानावरणीय कर्म रूपी घूँघट दूर करके उनका रूप देखने लगी । वह अपने स्वामी को मिलने के लिए तत्पर हुई, परन्तु आत्मस्वामी गुणस्थान रूपी भूमिका का उल्लंघन करके तेरहवें गुणस्थान
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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