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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२१२ आनन्दघन प्रभु चलत पंथ में, समरि समरि गुण गावे । प्रव० ॥ ५ ॥ अर्थ-बार-बार अवसर प्राप्त नहीं होगा। ऐसा संयोग पुनः पुनः नहीं आयेगा। अर्थात् यह मानव-जन्म पुनः नहीं मिलेगा। अतः जब भलाई करने का अवसर हो, उस समय भलाई कर ले, ताकि जन्मजन्मान्तरों में सुख प्राप्त हो ॥१॥ ... विवेचन-योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी कहते हैं कि हे मनुष्यो ! नर-भव पुनः पुनः प्राप्त होने वाला नहीं है। दुर्लभ मानव-जन्म पाकर धर्म रूप परमार्थ के कार्य करने चाहिए। जैसे-जैसे ज्ञान प्रकट होता रहे वैसे-वैसे उपकार के कार्य करने चाहिए। परमार्थ के कार्य करोगे तो भावी जन्मों में सुख प्राप्त करोगे। देव आदि की गति में शाता वेदनीय के भोक्ता बनोगे। अर्थ-तन, धन और यौवन सब झूठे हैं, क्षणभंगुर हैं क्योंकि प्राण तो पल मात्र में चला जाता है ।२।। .. विवेचन - हे मानव ! तू बाह्य वस्तुओं में अपना हित सोचकर तनिक भी विचार मत करना। तू अपने मन में फल कर कुप्पा मत होना। तू जिस तन, धन तथा यौवन का गुमान करता है, उन पर अहंकार करता है, वह तन धन तथा यौवन सर्वथा मिथ्या है। रावण के समान अभिमानी नृप भी प्राण त्याग कर पल भर में अन्य भव में चले गये। मूर्ख मनुष्य तन, धन और यौवन को अपना मानते हैं। हम कोटि उपाय करें तो भी क्या रेत में से घी निकल सकता है ? कदापि नहीं। इसी तरह से करोड़ों उपाय करने पर भी तन, धन एवं यौवन में से स्थायी सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। अर्थ-जब तन ही नहीं रहे तो धन किस काम आयेगा ? तन के अभाव में धन का क्या उपयोग है ? फिर व्यर्थ ही तू कृपण क्यों कहलवाता है ? ३॥ विवेचन–श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे मानव ! तू धन के पीछे क्यों पागल है ? धन की ममता में तू रात-दिन क्यों लीन हो रहा है ? धन तो जड़ वस्तु है। इसे यहीं छोड़ कर लाखों मनुष्य चले गये, असंख्य मनुष्य चले गये; परन्तु धन आज तक किसी के साथ नहीं गया।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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