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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२०२ उत आसा तिसना लोभ कोह । इत शान्त दान्त सन्तोष सोह ।। ४ ।।.. उत कला कलंकी पाप व्याप । इत खेले प्रानन्दघन भूप प्राप ।। ५ ।। अर्थ -सूमति चेतन को कह रही है कि हे प्रिय ! हे जीवनप्राण ! यह बात सत्य मानो कि उधर ममता के फन्दे में पड़ने से तिल के बराबर भी सद्गुणों की वृद्धि नहीं है। उस वृद्धि से तनिक भी हित होने वाला नहीं है ॥१॥ विवेचन -अनादिकाल से प्रात्मा ममता के संग पड़ा है। उसकी संगति से आत्मा सत्य तत्त्व का विचार नहीं कर पाता है, वह शुद्ध देव-गुरुधर्म को पहचानने में असमर्थ रहता है और वह मिथ्यात्वदशा में अपना जीवन व्यतीत करता है। ममता जीवों को चार गतियों में परिभ्रमण कराती है। आत्मा के साथ जब ममता का सम्बन्ध होता है तब उसका झुकाव क्रोध, मान, माया एवं लोभ की ओर होता है इस कारण सुमति अपने आत्म स्वामी को कहती है कि आप ममता के प्रपंच, में मत फँसे । ब्रह्मा, विष्णु, महादेव भी इसके प्रपंच में फँस गये। अतः ममता के प्रपंच रूप इन्द्रजाल से दूर रहें। उसकी संगति से आपको तनिक भी लाभ नहीं है, उससे आपका तनिक भी श्रेय नहीं है। उसकी संगति से आप अपने मूल शुद्ध धर्म को भूलते हैं। अर्थ - उधर ममता की ओर से आप कुछ न माँगें क्योंकि उधर आत्म-हित की एक भी बात नहीं है। इधर विवेक भेद-ज्ञान की छड़ी लिये खडे हैं जो अनीति की राह से रोकते रहते हैं ।।२।। विवेचन --पाठान्तर से भाव निकलता है कि विवेक ने छरी ग्रहण की है तो उसके कारण आपको स्वयमेव मेरे पास आना पड़ेगा। छरी इस प्रकार है --(१) भूमि-शयन, (२) पर-पुरुष-त्याग, (३) आवश्यक कृत्य, (४) सचित्त त्याग, (५) एकासना और (६) गुरु के साथ पाद-विहार । सुमति कहती है कि मैं धारण रूपी भूमि पर शयन करूगी, पर भाव रूप पर-पुरुष का त्याग करूंगी, आवश्यक क्रिया के द्वारा मैं अन्तर में असंख्यात प्रदेश में विचरण करूंगी, अन्य जीवों के प्राणों का नाश न हो उस प्रकार से मैं ज्ञानामृत का भोजन करूंगी, एक शुद्ध स्वरूप आहार का सेवन करूंगी और अनुभाव ज्ञान रूप सद्गुरु के साथ अन्तर के प्रदेश में मैं ज्ञान एवं क्रिया
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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