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________________ शंकास्पद पद (१) ( राग-वसन्त ) प्यारे आई मिलो कहा, ऐंठे जात । मेरी विरह व्यथा अकुलात गात ॥ प्यारे० ।। १॥ एक पईसारी न भावे नाज, न भूषण नहि पट समाज ।। प्यारे० ।। २॥ मोहि निरसनि तेरी पास, तुम ही शोभ यह घर की दास ।। प्यारे० ।। ३ ॥ अनुभवजी कोऊ करो विचार, कद देखों ह बाकी तन में सार ।। प्यारे० ।। ४ ।। ___ जाई अनुभव समझाय कंत, घर पाए प्रानन्दघन भए वसन्त ।। प्यारे० ।। ५ ।। (भाषा एवं शैली को भिन्नता के कारण यह पद शंकास्पद है।) अर्थ-शुद्ध चेतना कहती है कि हे चेतन ! आकर मुझे दर्शन दो। क्यों इतने ऐंठे जा रहे हो ? मेरे बार-बार बुलाने पर भी आप नहीं आ __ रहे हैं। विरह-व्यथा के कारण मेरी देह आकुल-व्याकुल हो रही है ।।१।। विषेचन-शुद्ध चेतना के उद्गार सचमुच प्रेममय हैं। अपने स्वामी पर उसका शुद्ध प्रेम है। उसकी रग-रग में शुद्ध प्रेम प्रवाहित है। उसकी विरह-व्यथा ऐसी है कि वह अत्यन्त प्रशान्त है। पतिव्रता नारी स्वप्न में भी पर-पूरुष के प्रति विषय-प्रेम नहीं प्रकट करती। वह पति के लिए अपने प्राण न्यौछावर करती है । अर्थ-शुद्ध चेतना कहती है कि पति के विरह में मेरी ऐसी दशा हो रही है कि मुझे एक पैसे भर भी अन्न अच्छा नहीं लगता, न आभूषण
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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