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________________ श्री आनन्दघन पदावली-१६५ ... (७६) ( राग-जैजैवंती ) तरस कीजई दइ को दई की सवारी री ।। तीच्छन कटाच्छ छटा, लागत कटारी री । तरस० ।।१।। सायक लायक नायक प्राण को प्रहारी री। काजर काज न लाज बाज न कहूँ वारी री ।। तरस० ।।२।। मोहनी मोहन ठग्यो जगत ठगारी री। दीजिये प्रानन्दघन दाद हमारी री ।। तरस० ।।३।। पूर्व दिग्दर्शन -मोहनीय कर्म के उदय से जब चेतन ऊपर के गुणस्थान में चढ़कर गिरता है, तब चेतना अत्यन्त दु:खी होती है। चौथे गुणस्थान में आत्मज्ञान सम्यक्त्व प्राप्त होता है, पाँचवें में देशविरति, छठे में सर्वविरति और सातवाँ अप्रमत्त होता है और आठवें गुणस्थान में शुक्ल ध्यान आत्मध्यान ध्याते हुए जीव ऊपर चढ़ता है। तत्पश्चात् दो घड़ी में सम्पूर्ण कर्ममल का नाश करके नवें, दसवें तथा बारहवें गुणस्थान को पार करते हुए जीव केवलज्ञान स्वरूप तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है। आठवें गुणस्थान में चेतना चेतन के साथ एकता अनुभव करती है और तेरहवें गुणस्थान में एकत्व प्राप्त कर लेती है। ... जब चौथे गुणस्थान से पतन होता है तो अत्यन्त अल्प काल तक जीव दूसरे गुणस्थान में रुक कर पहले गुणस्थान में पहुँच जाता है। सम्यक्त्व प्राप्त करके जब जीव गिरता है, उस समय की परिस्थिति का इस पद में दिग्दर्शन कराया गया है। चेतना विलाप के उद्गार प्रकट करती है कि अर्थ- हे विधाता ! तनिक दया करो। यह आपका कैसा जुलस है, कैसी सवारी है ? इसके तीक्ष्ण कटाक्ष की प्रभा कटार के समान मेरे आर-पार हो जाती है ॥१॥ विवेचन -शुद्ध चेतना कहती है कि हे सखी समता ! मेरे स्वामी शुद्ध चेतन मेरे घर आते नहीं हैं। वे कुमति, ममता एवं तृष्णा के निवास पर बार-बार जाते हैं तथा अशुद्ध परिणति के निवास पर पड़े रहते हैं । मेरा कर्म ऐसा उदय में आया है कि वह मेरे स्वामी को मेरे आवास पर
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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