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________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-१६२ करना आवश्यक है। नि:स्पृह भाव प्राप्त करना कोई सामान्य कार्य नहीं है। जब तक अन्तर में सात प्रकार के भय में से एक भी भय होगा तब तक निर्भय नगर में प्रवेश नहीं हो सकेगा। रोगभय, मृत्यु-भय, इहलोक-भय, परलोक-भय, दुर्घटना-भय, कोति-भय और अपकीति-भय आदि में चित्त-वृत्ति लगी रहेगी, तब तक निर्भय नगर में प्रविष्ट होने का अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता। निर्भय नगर के द्वारपाल विवेक को मोहराजा के योद्धा लालायित नहीं कर सकते। विवेक तीसरा नेत्र है। विवेकहीन मनुष्य पशु तुल्य होते हैं । विवेकरूपी द्वारपाल के जाग्रत होने से आगमों के प्रति श्रद्धा, उनका मनन, श्रवण, पठन एवं अध्ययन उचित प्रकार से हो सकता है। तत्पश्चात् सुविनोदी व्यवहार की प्राप्ति होती है और फिर वैराग्य मित्र की प्राप्ति होती है। द्रव्यानुयोग का परिपूर्ण अभ्यास करने से ज्ञानगर्भित वैराग्य प्राप्त होता है। तत्त्वज्ञान के अध्ययन से उत्तम वैराग्य प्राप्त होता है। ज्यों-ज्यों ज्ञान आदि गुणों के द्वारा आत्मा की उच्च दशा में वृद्धि होती है; त्यों-त्यों समत्व गुण की वृद्धि होती रहती है। जो मनुष्य समत्व गुण के अधिकारी बनने का प्रयत्न करते हैं, वे ही मनुष्य परमात्म पद प्राप्त करने के अधिकारी बनते हैं। समत्व गुण रूपी वायु से प्रत्येक मनुष्य अन्तर के गुणों का पोषण कर सकता है और ज्ञान आदि गुणों के द्वारा पुष्ट बनता है। अन्तर के देश में संवर तत्त्व का माहात्म्य इतना हो जाता है कि वहाँ ईति एवं अनीति रहती ही नहीं। अनीति का पूर्णतः नाश करने वाला संवर है। प्रत्येक मनुष्य को ऐसा आन्तरिक उत्तम देश प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। ( ७५ ) ( राग-रामगिरि ) पातम अनुभव प्रेम को, अजब सुण्यो विरतंत । निरवेदन वेदन करे, वेदन करे अनंत ।। साखी ।। म्हारो बालूड़ो संन्यासी, देह देवल मठवासी ।। इडा पिंगला मारग तजि जोगी, सुखमना घरि पासी। ब्रह्मरंध्रमधि आसण पूरी अनहद नाद बजासी ।। म्हारो० ।। १ ।।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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