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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१८६ विवेचन-ज्ञानियों ने समझने के लिए कर्म को आठ श्रेणियों में विभक्त किया है। इनमें से चार कर्मों ने जीव के मूल स्वरूप को ढक दिया है। अतः ये घातीकर्म कहलाते हैं। ज्ञान तथा दर्शन को ढकने वाले कर्मों को क्रमशः ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कहते हैं। प्रात्मा की अनन्त शक्ति को रोकने वाले कर्म को अन्तरायकर्म कहते हैं। यह समस्त विकृति मोह के कारण होती है। मोहनीयकर्म को ही सबसे प्रबल माना गया है। इसी प्रबलता के कारण इसे 'मोहराजा' कहा है। इसका नाश होते ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय ये तीनों कर्म स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं। प्रत्येक कर्म की चार अवस्थाएँ हैं -बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता। राग-द्वेष परिणामों के कारण कर्म-पुद्गल का आत्मा से सम्बन्ध होने को बंध कहते हैं। कर्म की फलप्रद शक्ति को उदय तथा उदय में नहीं आये हुए कर्मों को ध्यान-तप आदि के बल पर उदय में लाने को उदीरणा कहते हैं। जो कर्म बंध चुके हैं परन्तु उदय-उदीरणा में नहीं आये, आत्मा के साथ लगे हुए हैं उन्हें सत्तागत कर्म कहा जाता है। ___ मोह का बंध नवें गुणस्थान तक होता है। क्षपकश्रेणी वालों के दसवें गुणस्थान के अन्त में मोह की सत्ता का नाश हो जाता है। यहाँ सुमति का साथ भी जाता है अर्थात् सुमति वीतराग परिणति रूप शुद्ध चेतना का रूप ग्रहण कर लेती है जिसका साथ कदापि नहीं छूटता। अर्थ - इस प्रकार दसवें गुणस्थान में मोहराज को नष्ट करके विजय-दुदुभि बजवा कर, बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय कर्मों का नाश करके तेरहवें गुणस्थान में चेतनराज बिराजमान हुए। चेतनराज के विजयी होने पर रसरंग से परिपूर्ण केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी सुन्दर अप्सरात्रों के समान सुमधुर शब्दों से सम्पूर्ण विश्व की बातें बताती है और आनन्दस्वरूप चेतन ज्ञान-लक्ष्मी रूपी शुद्ध चेतना को असंख्यात प्रदेशात्मक निज देह के प्रत्येक प्रदेश में धारण कर लेती है ।। ३ ।। विवेचन--सम्पूर्णतया कर्मशत्रु का नाश करके सिद्धात्मा केवललक्ष्मी के साथ रहता है। केवलज्ञान-लक्ष्मी के द्वारा समय-समय पर सिद्धात्मा अनन्त सुखों का उपभोग करता है। वे जन्म, जरा एवं मृत्यु के दुःखों से मुक्त हो चुके होते हैं। सुमति कहती है कि हे सखी ! मेरे स्वामी की उत्तम दशा और समय-समय पर होता अनन्त सुख, तीन लोकों
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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