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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१७६ 4-१७६ प्यारे पाछे दे वाहि नाम, पटिये मीठी सुगुण धाम । प्रा० ॥ ४॥ देवे आगे अधिकार ताहि, प्रानन्दघन प्रभु अधिक चाहि । प्रा० ।। ५ ॥ अर्थ - समता अपनी सखी श्रद्धा से कह रही है कि हे सखि ! जिसके ऊपर ये ज्ञान स्वरूप चेतनस्वामी रीझे हुए हैं, आसक्त हैं, वह कुबड़ी कुबुद्धि किस जाति की है ? क्या तुम्हें पता है ? यह चेतन की जाति की तो नहीं है और न यह जड़ जाति की है। यह चेतन एवं जड़ के संयोग से उत्पन्न मोह की दोगली पूत्री है। इसके प्रेरित करने से चेतन भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए हिंसा, असत्य, चोरी आदि कुकर्म करने में भी पीछे नहीं हटता ।। १॥ विवेचन-समता कह रही है कि इस कुबुद्धि का यदि स्वरूप देखा जाये तो उसकी ओर देखने की कभी इच्छा नहीं होगी। कुबुद्धि के कारण हिंसा की ओर प्रवृत्ति होती है, चोरी एवं व्यभिचार की ओर उन्मुखता होती है, क्रोध करके अवनति की ओर प्रवृत्ति होती है, अनीति • का आचरण होता है। इसी के कारण युद्ध होते हैं। अर्थ -इस नीच अधम कुबुद्धि का विशेष आश्रय लेने से यह ज्ञान-धन चेतन परम तत्त्व को छोड़कर सांसारिक माया-जाल में फंसा हुआ है ।। २॥ विवेचन - कुबुद्धि की प्रेरणा से मनुष्य हृदय में मिथ्यात्वशल्य को धारण करता है। प्रिय सखी ! परमामृत तुल्य मुझ समता की संगति छोड़कर चेतन कुत्सित शाखा तुल्य कुबुद्धि पर न्योछावर होता है, परन्तु यदि यह कुबुद्धि के कार्यों का विचार करेगा तो वह सत्य जान सकेगा। अर्थ-जहाँ देह से सम्बन्धित विषयवासना के अतिरिक्त तनिक भी सद्गुण नहीं है, यह कुबुद्धि पलभर में गले पड़ जाएगी, बरबस फंसा लेगी ॥३॥ विवेचन–कुबुद्धि अवगुणों का भंडार है, वह पलभर में गले पड़ जायेगी, चुडैल की तरह दुःख देने के अनेक प्रकार से प्रयत्न करेगी।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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