SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१६६ सीतल सफल संत सुरपादप, सेवउ सदा सुखं छाइ री। वंछित फले टले अनवंछित, भव संताप बुझाइ री ।।.. साधु० ।। २ ॥ चतुर विरंचि विरोचन चाहे, चरण कमल मकरंद री। कोहर भरम विहार दिखावे, सुद्ध निरंजन चंद री ।। साधु० ।। ३ ॥ देव असुर इन्द्र पद चाहु न, राज समाज न काज री । . संगति साधु निरन्तर पा, प्रानन्दघन महाराज री ।। . साधु० ।। ४ ।। अर्थ-अध्यात्मयोगी श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज कहते हैं कि पूर्ण चारित्र पालने वाले संत पुरुषों की सत्संगति के बिना आत्मानुभव रूपी परम महारस का स्थान कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? साधुसंगति के अतिरिक्त अन्य करोड़ों उपाय करने वाले पागल ही हैं । साधु-संगति के बिना अनुभवयुक्त बातों को जानने में रुकावट आ जाती है। तात्पर्य यह कि साधु-संगति ही अनुभव-वार्ता के लिए विश्राम स्वरूप है। कोई चाहे कितना ही तप करे, शास्त्रों का अध्ययन करे, किन्तु साधु-संगति के बिना वह आत्मानुभव प्राप्त नहीं कर सकता ।। १ ॥ विवेचन-श्रीमद् आनन्दघनजी ने प्रस्तुत पद में साधु-संगति का माहात्म्य बताया है। करोड़ों उपाय करें परन्तु साधु-संगति के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। संसार में सबसे महान् आत्म-भोग देने वाले साधु हैं। स्व-पर के कल्याणार्थ साधु बनने की अत्यन्त आवश्यकता है। उपकार रूप प्राण तत्त्व के द्वारा साधु जगत् के पोषक हैं और कंचन एवं कामिनी का त्याग करके आत्म तत्त्व के वास्तविक उपासक साधु हैं। अनेक प्रकार के परिषह सहन करके धर्म का प्रचार करने वाले साधु हैं । देवता भी साधुओं के उपकार से दबे हुए हैं। मन एवं आत्मा को सुधारने के लिए साधुओं के अतिरिक्त कोई नहीं है। प्राचार्य, उपाध्याय एवं साधु सब जैनधर्म के प्रसारक हैं। श्रावक तो श्रमणोपासक गिने जाते हैं। साधु-साध्वियों के आचार-विचारों का गृहस्थों पर उत्तम प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। साधुओं की उन्नति
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy